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24 Sep 2021 · 15 min read

मँझधार ०५

1. बरखा आई घूम – घूम के

बरखा आई बूँद – बूँद के करतें मृदङ्ग
बढ़ – बढ़ आँगन के चढ़ते – उतरते बहिरङ्ग
सङ्गिनी चली बयार की लीन्ही सतरङ्ग
जल – थल मिलन मिली छूअन हर्षित अनुषङ्ग

ओढ़ घूँघट के दामिनी स्वर में झूम – झूम
आती क्षितिज से घूमड़ – घूमड़ घूम – घूम
घोर – घनघोर पुलकित आशुग ठुम – ठुमके
स्पन्दन क्रन्दन में सङ्गीत रश्मि नूपुर – सी रुनझून

निशा बिछाती विभोर विरहनी सावन
गुलशनें निवृत्ति निझरि – सी स्वर आप्लावन
पिक मीन सिन्धू वात तड़ित् सङ्ग करावन
हरीतिमा नभचर जीवन सृजन कितने मनभावन !

कर जोर विनती तुङ्ग धरा करती आलिङ्गन
इन्द्रधनुषीय छटाएँ छलकाएँ तरणि आँगन
कृष्ण राधा – सखियाँ सङ्ग करती प्रेमालिङ्गन
हो धरा प्रतिपल प्रेमिल धोएँ ध्वनि लिङ्गन

हुँ – हुँ स्वर कलित भव में चिन्मय हुँकार
तड़ित् ऊर्मि वारिद अँगन में ऊर्ध्वङ्ग धुङ्कार
पन्थ – पन्थ पन्थी आहिश्वर रव ओङ्कार
मण्डूक ध्वनि नतशिर झमाझम बरखा झमङ्कार

2. रणभेरी में रण नहीं

पंक्षी घोंसले से क्यों लौट रही ?
आजादी क्या इनकी छीन – सी गई !
या यहाँ कोई दरिन्दों का बसेरा है
भूखें – प्यासे है यें कैसे जानें ?
ज़ख़्म पड़ी चहुँओर प्याले वसन्त
दुर्दिन लौट गया उस क्षितिज से

करूणा व्याथाएँ को जगाएँ कौन ?
विभूत अरुण नहीं पन्थ – पन्थ में
उन्माद लिए कबसे अचल असीम
रणभेरी में रण नहीं आरोहन के
बटोरती ऊर्ध्वङ्ग मधुमय भुजङ्ग
प्यास भी बिखेरती अकिञ्चन नभ नहीं

कहाँ खोजूँ अमरता छू लूँ अविकल
आघोपान्त रहूँ तड़ित् झँकोर गगन
गुमराही नहीं मानिन्द निकन्दन उपवन से
स्वर – ध्वनि नूपुर के अभिजात नवल
बढ़ चला अलङ्गित पन्थ – पन्थ पतझड़ भरा
मज़ार में नहीं मञ्जर का पथ पखार

अम्लान – सी अदब करूँ मातृभूमि व्योम की
मुकुलित गिरिज पङ्किल से करती नतशिर
किञ्चित् कस्तूरी मिलिन्द मैं द्विजिह्व लिए
मही छवि उर में कुसुम मलयज
घन – घन घनप्रिया कैसी करती क्रन्दन ?
आँसू बूँद – बूँद करके धोएँ कलित नयन

3. लौट चलूँ मैं ?

मत पूछो कविता के बहाने मुझसे
बिखर गया टूट के तकदीर प्याले
शक्ति कहाँ मुझमें कसमसाहट भरी
उलझनें भी थी तमाशबीनों के तनी थाती
यह करतब कसाव तरि व्यथाएँ की
किन्तु यह धरा निहत नहीं जनमत में तन

लौट चलूँ मैं अब निर्झर भार के नहीं
यह द्युत कीड़ा भी नहीं पाण्डव के
बह चला वों कर्तव्यनिष्ठ के पथिक
शङ्खनाद आलिङ्गन के महासमर में मञ्जर
प्रतिज्ञा देवव्रत तरङ्गित करती आवाह्न
हरिश्चन्द्र शक्ति नहीं अब घनीभूत किसमें

अकिञ्चन अपार द्विज दुर्बोध पला
अद्भिज हूँ प्रवात परभृत प्रतीर के
रश्मि जग उठी केतन लिए प्राची में
क्षितिज से हुँकार कर रही धरा तम में
छवि तरणि उद्भव से चल दिया कलित
दक्ष किरणें लाँघती विसर्जित पन्थ में

क्यों नहीं ऊँघते राग ध्वनित मञ्जु में ?
ओट ढ़लकाती निमिष में जाग्रति विकल
सुभट दमख़म पावस घनीभूत निवृत्ति
मूँद व्याधि अक्षोभ प्रभूत प्रभात के
बूँद नीहार पिक दामिनी के नूतन चक्षु
अनी अभेद मही वसन निकेत चितवन के

4. कैसे भूल जाऊँ मैं ?

कैसे भूल जाऊँ मैं ?
आदिवासियों की दस्तूरें ,
प्रकृति जिसके थे सहारे
अंग्रेज़ों ने जिसे भी बाँध लिया
खानाबदोश की तन देखो
पसीनो से क्यों भीङ्ग रहें यें ?
वञ्चित रह रहकर जिसने
अपने पेट को भी सिल दिए
सङ्कुचित कितने हो रहें यें
क्या लुप्त के कगारे हैं ?
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

माताएँ की साधना को देखो
बहनें मुस्तक़बिल तन में खो रहें
पन्थी गुलामी की जञ्जीर जकड़े
उनकी व्यथाएँ तड़पन कौन जाने !
घर – भार इनका आग के लपटों में बिखेर‌ रहा
बच्चों के चित्कार को देखो दरिन्दो कभी ?
नग्न पड़ी इनकी पुरानी बस्तियाँ
पेटी भरना अभी भी इनकी बाकी क्या ?
लुटा दो , मिटा दो वो पुरानी सभ्यता
भूखों को सूली पे लटका दो
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

हे भगवन् ! रोक लो अब इस बञ्जर को
ज्वलन मेरी असीम में बह चला
जानता हूँ पहाड़ भी मौन पड़ा
नदियाँ बोली मैं भी इन्तकाल
सूर्य तपन में है मेरी कराह
कबसे अम्बर गरल बरसा रहे
सुनो न ! लौटा दो बहुरि बिरसा को
तन्हां कलित कर दे इस भव को
स्वच्छन्द हो धरा स्वप्निल में बसा कबसे
निर्मल रणभेरी विजय समर झङ्कृत
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

5. रात रानी आयी

रात रानी आयी पङ्ख पसारें
झिलमिल – झिलमिल कितने है निराले !
हैरान हो चला , पता नही मुझे…?
गुमसुम में क्यों खो जाते लोग ?
चिडियाँ भी गयी , सूरज भी गया…
पेड़ भी सोने क्यों चले गए कबसे ?

देखो चन्द्रमा की प्यारी – सी मुस्कान
रह जाते क्यों तुम आमावस्या को अधूरे ?
फिर पूर्णिमा को पूरे कहाँ‌ से चले आते हो !
आसमान हो गए जिसके प्याले – प्याले
असमञ्जस में मुझे क्यों तुम रखते हो ?
इसका भी रहस्य मुझे बताओ न

ऊपर – ऊपर देखो दिखता उद्भाषित तारें
यें छोटे- छोटे झिलमिलाते क्यों दिखते हैं ?
इन्हें माता – पिता का डर है या शिक्षकों का
घर जाने के लिए यें क्यों रोते सदा ?
मै भी रोता , तू भी रोते रहते
क्यों न चलों हम तुम दोस्त बनें चल

ध्रुव के कितने पास सप्तऋषि तारें हैं !
चारों ओर मण्डल सदैव जिसके चक्कर लगाते हैं
स्वस्तिक चिन्ह अग्रेषित रहने का सन्देश देती
शान्ति समृद्ध प्रेम का पैग़ाम पहुँचाती हमें
अरुण अगोरती अनजान प्राची क्षितिज से
बढ़ चला उषा सदैव सवेरे पन्थ पखारे

6. पन्थ

व्यथाएँ विस्तृत सरोवर में अलङ्गित
चान्दनी – सी धार विलीन करती मुझमें
रिमझिम – रिमझिम पाहुन वल तड़ित्
तरि अपार में अभेद्य उऋण कली

करिल कान्ति तनी में दीवा विस्मित
नीरज नीड़़ में परिहित विभूति विरद
सखी मैं सहर के द्विज स्वर मैं
अनुरक्त से बढ़ चला अनभिज्ञ अस्त

चिन्मय चेतन क्षणिक ज्योत्स्ना
तरुण द्रुम बहुरि तिमिर ज़रा
झोपड़ी छाँह बन चला निरुद्विग्न मैं
पाश में नहीं निस्तब्ध – सी निरापद

शबनम स्नेहिल अम्लान रणभेरी छरिया
वृत्ति व्याधि वल्कल विटप के विह्वल
मज़ार मेरी विरुदावली इज़हार के लहराईं
सौंह के अर्सा में आरोहन से चली बयार

चिरायँध नहीं विभूति सतदल के कलित गात
व्योम विहार बसुधा जीवन के नतशीर प्राण
डारि देहि तम भोर सुरम्य वरित वसन्त
उद्यत्त जनमत ज़र्रा से पृथु पन्थ के जवाँ

7. कलियाँ

तृण फरियाद सुनें कौन इस आँगन के ?
अनिर्वृत्त निगीर्ण स्वच्छन्द नहीं वो
क्षिति कुक्षि इतिवृत्त की आहुति दे दो
अकिञ्चन महफ़िल प्रबल अभिभूत अघाना

प्रलय पद्चिन्ह दहकता स्वर में
चिरकाल असि म्यान में क्या कदर ?
चातक क्यों हैं उस ओर उचकाएँ खड़ा ?
यह ईजाद ओछा अतल उदधि के

घनेरी कोहरिल की तृषित घटाएँ
मरकज विभा मयस्सर सफ़र के
जनमत लूँ बहुरि दरगुज़र के नहीं
महरूम दर्प – दीप्त तलघरा दूर

आदृत नहीं जो चिर गोचर विषाद
यह आतप नहीं विपद असार
चनकते कलियाँ को भी देखा मचलते
निमिष मग में बह चला तनते पङ्ख

सान्त प्रतिक्षण विसर्जन के मृदुल विस्तार में
पनघट तड़ित् मुलम्मा दरख़्यतों के
निठूर स्याही थी किरात चक्षु विभूत
अकिञ्चन उँघते मधुमय शबीह

8. पथिक

बदल क्यों गया ध्वनि कलित का ?
घूँट – घूँट क्लान्त व्याल ज्वलन में
टूट गया विह्वल वों प्राण से तलवार
कौन जाने मरघट के शृङ्गार नयन ?

बैठ चला है तू उन्मादों के
मशक्कत कर फिर गोधूलि हो जाता
यह आनन को न देख बढ़ चल अग्रसर
कल्पना के बाढ़ में बैठ चला हारिल

रुक मत घूँघट के सार में न विकल
एक तिनका भी नहीं विचलित तेरे स्वप्नों के
एक चिङ्गार तेरी है और किसी के नहीं
मनु चला मनुपुत्र भी अब तेरी है बारी

लौट चल फिर उस पथ के पथिक तू ही है
रागिनी स्वर के तरङ्गित कर तू प्राची है
यह दुनिया स्वप्न के ज़ञ्जीर नहीं चला
तू ही सम्राट हो स्वर झङ्कृत के प्याले

मौन नहीं सान्ध्य निर्निमेष निगूढ़ में
तू प्रकृति के रसगान तरङ्गित स्वर के
युगसञ्चय समिधा ज्वलित पङ्क्ति में अकेला
सदा द्रवित चीर नीहार अनुरक्त दृग स्वप्निल कलित भरा

9. मँझधार

चल दिया लौट मैं दरमियान के
वक्त के तालिम भी बढ़ चला असमञ्जस
मैं विस्तृत नभचर अमोघ प्याला
अवनि चला चिन्मय अश्रु अर्पण सार

प्रथम स्तुति कलमा नव्य जाग्रत के
निर्लिप्त प्राची उषा के दिग्मण्डल
उर्ध्वङ्ग आवाह्न सृजन पराग झरा
चीरता पङ्खों से असीम चला

चिन्मय आतप मेरी सुषुप्त अचिर को
अनृत निष्ठुर आकीर्ण आतप अचिर नहीं
ध्वज दण्ड का विष दंश भरा
शलभ क्षणिक प्राण न्योछावर दामिनी के

प्रभा पिराती है मुझे अंतर्ध्वनि के मलिन
रुधिर रक्तरञ्जित कनक हरिण हिलकोर
सैलाब उमङ्ग नहीं पथ पखार विधान
आवरण रङ्गमञ्च यथार्थ सञ्चित विराग

दरिया आलिम मँझधार में कम्पित मनचला
आहुति स्मृति स्वप्निल धूमिल शहादत
ज्वलित पङ्किल भस्मीभूत सुरभित
बह्नि तारकित शहादत शौर्य दुकूल

तिरोहित कोहरिल उन्मुत्त उन्मुक्त क़ज़ा
यह गात मेरे कजरारे क्लेश – सी विस्मित
काफ़िर शव शब गुञ्जित स्वर
कराली अंगीकार मुझे तप्त तीरे

10. वितान

ऐ बचपन लौट आ नव्य वसन्त में
क्यों रूठ गए कहाँ चलें गए तू ?
क्यों रुलाते मुझे इस सरोवर में ? बोलो !
मैं हूँ बिखरा निर्विकार दिगम्बर में

स्वप्निल चन्द्रवदन – सी स्मृति के
जाग्रत क्षणिक विकल तरुवर
विहग अंशु क्रान्ति में विप्लव
हयात कौतुक भी ध्वज में पला

दीवाने थी रैन भोर – सी तरणि
प्रज्वलित हो चला अनागत में
बन बैठा तन तरुवर में दामिनी
आशुग लहरी कलित अलङ्गित

निर्झरिणी प्लव कल – कल कलित
बह चला मैं मीन अब्धि धार
अपरिचित – सी हूँ इस कगारे वसन्त
व्यथा मेरी उर में बिलखती क्रन्दन

तन्हा – सी मैं विचलित शृङ्गार
अराअरी – सी नीड़ धड़कन दर्पण
मीठी सङ्गम दर्पण सौन्दर्य लिप्सा सरोवर
वितान मैं अब जीवन अंगार के

लूट गया हूँ मैं जीवन वसन्त से
खो गया मैं कण्टकाकीर्ण में लीन
प्रणय विष दंश निर्निमेष प्रहरी
मर्मभेदी उपाधी झल स्याही कलङ्क

11. तस्वीर

दीप प्रज्वलित मेरे तन को
हृदय में छायी शौर्य गाथा दस्तूर
वतन – वतन कर रहा तेरी पुकार मुझे
खून धार सीञ्चे दीवानें चलें हम

हिमालय – गङ्गा – धरती करें हुँकार
साँस – साँस तेरे करें हम फिदा
दुल्हन दामन संस्कृति अम्बर
एहसास हमारी बढ़ते – बढ़ते कदम

सरहद कुर्बानी दौलत बनें हम
नतशिर हूँ उन मातृभूमि बलिदानी
जले जुर्म शोला बरसे दामन
गङ्गा – सिन्धु – ब्रह्मपुत्र धोएँ तस्वीर

हुस्न – इश्क़ मौसम का नहीं रुसवा
पग – पग विहग पन्थ ध्वनि झङ्कृत
ऋषि – मुनि गुरुवरों का करतें वन्दन
सत्य अहिंसा धर्म के वाणी बनें हम

पूछ रहा भव क्यों रक्तरञ्जित मैं ?
मैं ठहर गया क्षणिक विभीत – सा
हो चला स्पन्दन क्यों दर्द भरा ?
निष्कृष्ट धार निहत नशा

12. समय

समय – समय का मारा है सब
सभी ने समय को जाना
न है कोई भेदभाव
चाहें राजा हो या रङ्क
जिसने समय का उड़ान भरा
उज्ज्वल भविष्य उनका हुआ
समय का पहिया क्रमतल है
अतीत – वर्तमान – भविष्य
अतीत से हमें ज्ञान मिला
वर्तमान हमारा जीवन
भविष्य के लिए सङ्घर्षरत है
ज्ञान – अर्थ – धर्म – मोक्ष की प्राप्ति
समय अति मूल्यवान है
विजयी इसके दिवाने हो चलें हरपल
समय है सङ्घर्ष का पहिया अग्रसर
जहाँ है सभी को जाना अविरत

13. पङ्क्ति

मत रुक बस एक पैग़ाम दे दे मुझे
लौट आ मेरी आँखों के तन्हा
मञ्ज़िल का नहीं वों अभी पथिक दस्तूर
न जाने कैद क्यों हो चला जग से ?

अपने रन्ध्रों कसाव से मुरझा रहा कबसे
तमाशा भरी दुनिया में जग से मैं वीरान
विवर हो चला अंतर्ध्वनि भयभीत के
व्रज हुँकार कोऊ थाम ले झिलमिल

बौछारें टूट पड़ी दुर्मुख तेरी गर्जन
मैं विचलित गिरहें उँड़ेल दी मुझे
जग निहारी दारिद – सी दुनी असहेहु
विप्लव रव गुलशनें जीमूत आलम

अंजुमने मय के आबो – ताब आशिक
हुस्नो – ईश्क में फ़िद फ़ितरत मदहोश
अँधड़ – सी नमित पङ्क्ति कजरारे न्योछावर
नौरस भव गम आँसू कर रहे अदब

स्नेह – सुरा मन्दिर में ध्वनित गात
मेरी उद्गार उर में उन्माद राग
विकल शिथिल तन में विषाद विह्वलता
निःशेष खण्डहर – सी किनारों में पला

त्रियामा पन्थ विधु कौमुदी ओझल
म्यान – सी शून्य सारगर्भित निराकार
उदयाञ्चल में बढ़ चला उऋण संसार
पन्थ से विचलित कहर दफ्न में समाँ

14.मैं हूँ आर्यावर्त

हम नभ के है रश्मि प्रभा चल
उड़ता गर्दिशो मे पङ्क्ति प्रतीर के अचल
केतन लें चलूँ मैं मातृ – भूमि के वसन्त
अरुण मृगाङ्क जहाँ निर्मल करती नयन

निर्वाण आलिङ्गन वतन के हो जहाँ तन
शङ्खनाद मेरी महासमर के हुँकार के हो भव
अर्जुन – कर्ण के प्रतीर जहाँ कृष्ण के जहाँ पन्थ
अभिमन्यु हूँ चक्रव्यूह के शौर्य ही मेरी दस्तूर

गङ्गा – सिन्धु धार वहाँ अश्रु मैं परिपूर्ण
नगपति हूँ आर्यावर्त के दृग धोएँ पद्चिन्ह
खिला कुसुम कश्मीर के शिखर चला सौगन्ध
स्वछन्द तपोवन तीर का लहुरङ्ग के मलयज

उन्माद बटोरती तस्दीक के गुमनामी पतझड़
मधुमय कलित मन में क्या करूँ मै प्रचण्ड ?
शून्य क्षितिज तड़ित् न जाने हेर कौन रहा ?
तरङ्गिनी तरी सर चला जलप्लावन तरङ्ग

उद्भाषित प्रतिपल का जगा कस्तूरी उरग के
त्वरित प्रच्छन्न वनिता वदन रुचिर उर में
यह द्युति त्रिदिव के इला गिरि समीर सर
नीले – नीले दिव नयन इन्द्रधनुषीय – सी मयूर

15. ऊर्ध्वङ्ग तिरङ्गा

प्रातः कालीन का विश्व जगा
देखो – देखो कितने हैं उत्साह
तिरङ्गा का शान ऊर्ध्वङ्ग ज़रा
बच्चें भी कर रहें इनको नमन

आन – बान – शान की दस्तूर अपना
अपना अम्बर – सिन्धु – धरा जहाँ
जीवन प्रभा चाँदनी हरियाली बनें
शपथ पथ समर्पण सर्वस्व रहें सदा

इतिहासों की यहीं धरोहर अपना
कई वीरों का आहुति रक्त धार चला
सरहद कुर्बानी के समर रङ्ग काया
हर कदम साँसों की लाश भला

दुल्हन दामन का शृङ्गार रचा
किन्तु वों भी सिन्दूर बूझ गयी
राखी बन्धन का आसरा कहाँ ?
माँ का आँचल भी सिन्धु में बह चला

परिन्दें भी अपना आँचल छोड़ चलें
लूट गये भारत की वों भी तस्वीरें
अखण्ड भारत का कसम टूटा जब
धूल की तरह हम भी बिखेर गये

जय हिन्द क्रान्ति दिवाने बढ़ चलें हम
अज़मत चमन छत्रछाया ध्वज धरोहर
आजादी स्वच्छन्द अमन , साहसी बनें हम
गूञ्ज रहा पुनीत , सत्य , सम्पन्न का सार

16. तिरङ्गा

सूर्योदय का इन्तजार मुझे
देश का तिरङ्गा फहराएँगे
राष्ट्रगान सर्वशक्ति सम्पन्न
देश की धरोहरों के शान
याद दिलाती वों कुर्बान

तीन रङ्गों का पथ तिरङ्गा
समृद्धि शिखर तक जाएँ हम
अशोक चक्र सब धर्म हमारा
चौबीस तीलियाँ जीवन हमारा
हिन्दुस्तान का वन्दन करते रहें हम

एकता का पैग़ाम पहुँचाएँ जहाँ
जन गण मन का धार बनें हम
हिन्दू – मुस्लिम – सिख – ईसाई
शान्ति एकता साहस बलिदानी
धरती माँ की आँचल की काया

भगत सिंह – गाँधी – चंद्रशेखर आजाद
बनें आजादी के वीर सिपाही हम
ध्रुव – प्रह्लाद – सीता – सावित्री हैं हम
लक्ष्मीबाई – महादेवी – मीरा के नाद
आदर्श जीवन का ज्ञान कराएँ हम

17. चक्रव्यूह

कागज पन्नों की क्या कसूर ?
इतिवृत्त का भी सार किसका ?
निरीह स्वर के कलङ्कित राग
न जाने व्याथाएँ की क्या दस्तूर ?

क्या प्रारब्ध है चातक जानें ?
मन चला गर्जन घनघोर झुरवन
दीवानें भी सङ्गिनी चातक के
ऊँघते सौगन्ध प्रमुदित विह्वल

ढ़लकती ऊषा क्रन्दन व्याधि उन्माद
बरखा कब के लौट चलें नभ से !
ऊँघते क्रान्ति निरुद्वेग ओट अरुण
कड़कती निगाह तजनित पाश

मातहत भौन में भस्मीभूत काया
अविरत अंगीकार मुलम्मा ओछा
रञ्जीदा भव अवहेला शव खिजाँ
दरख़्तो तड़ित् पतवार पनघट के

इन्द्रधनुषीय – सी चिरप्यास घनेरी में
उत्स्वेदन ईजाद घनीभूत किसमें ?
आहत औरन के तनी जाने कौन ?
कजरारे दिग्मण्डल प्राची भी ओझल

खण्डहर – सी शोहरत अर्सा के
क्या कदर क्यों कोहरिल से ?
निष्ठुर दीपक भी नूर मञ्ज़िल नहीं
यह पौन धरा के भार भी क्यों ?

प्रलय नियरे किन्तु अर्जुन नहीं
कृष्ण शङ्खनाद सार कौन समझें ?
चक्रव्यूह समर के , क्यों अभिमन्यु ?
यह प्रतिद्वन्द्वी प्रतिक्षण का क्या निस्तेज ?

18. प्रथम जागृत थी

काली छायी टूट पड़ी नभमण्डल काया में
ललकार नही , जयकार नहीं वों ऊर्ध्वङ्ग तस्वीर
चन्द्रहास को न पूछ उसमें भी शङ्खनाद नहीं
चेतना की लहर किसका पङ्क्ति की आवाज ?

पिञ्जरबद्ध विहग आँगन के शप्त शय्या प्रतीर
कल सहर भी लौट चला विरक्त तिमिर सर में
तरुवर छाँह कराह के अशक्त निहत निर्वाद
निवृति ईप्सा अकिञ्चन भी नहीं आयत्ति गात

क्रान्ति व्यूह की प्रथम जाग्रत उबाल मिट्टी तन में
यह शहादत मंगल की बगावत बारूद चिङ्गार
रणभेरी यह रण थी दीन वनिता उत्पीड़न के भव
कमान सर से चूक पर रक्तरञ्जित कुञ्चित धरा

आमद यती प्रस्फुटित प्रभा पुष्प पुञ्ज कलित रण के
उपेन्द्र धार प्रवाह हृदय चित्त में विलीन मयूख
स्वप्निल स्वच्छन्द स्पन्दन से पन्थ कबसे नव्य अरुण के
इतिवृत्त पन्नग – सी त्याग शिशिर अम्बुद में मीन वसन्त

चिर विछोह तरङ्गित उर में स्वत्व वतन व्योम असीम
यह उपवन अभेद नीहार अजेय विस्तीर्ण भव केतन ऊर्ध्वङ्ग
बहुरि द्विज उद्भिज हूँ चिरायँध से स्वः सृष्टा गुर के
आर्द्र चितवन अमन के स्वच्छन्द विहग पङ्ख उड़ान के चला

19. प्रतिबिम्ब

आईन में देखा जब तस्वीर
चाहा यथार्थता को प्रतिपल
छिपा लूँ किन्तु छिप न सका
टेढ़ी – मेढ़ी लकीर भी
दिख गया तकदीर के

कोहरिल कालिख पतझड़ के
झुर्रियाँ उग आएँ काले – काले
गर्वीली निग़ाहों को देख
मदहोश बन बैठा उन्मादों के

उलझनें भी आयी चुभ पड़ी तत्क्षण
न जाने क्या कुढ़न क्यों कलङ्कित ?
तिमिर में भी क्या कभी पुष्प खिला ?
अश्रु भी चक्षु में नहीं कबसे

धुएँ अंधेरी के जरा – सी उँड़ेल
चिन्मय भी प्रचण्ड पथ – पथ के
अंतर देखूँ तो स्पर्धा से जलता हूँ
ऊपर देखूँ तो या भीतर के भव

तरङ्गित कर छायी उषा में खग
ध्रुवों पर अटल चिरता प्रतिबिम्ब
उत्तमता ऐब देख पिराती परिवेष्टित
मँडराती भवितव्यता भार पर हूँ अशक्त

बेला कहाँ वसन्त के झेलूँ भी कैसे ?
यह उजियाला लौट चला प्रतिची से
रश्मि की बाट क्यों देखूँ तब से ?
गूढ़ जीवन अमरता छू लूँ कहाँ से ?

तृषित धरा गगन गरल नील भी नीरस
नीले नभ में भोर तरणि कहाँ ओझिल ?
टूटता कलित तारों से बिछोह सन्ताप
क्रन्दन रस बिखर गया घनघोर में
अपरिचित झिलमिल विभावरी तट के

20. क्यों मै अपरिचित ?

सागर चीर – चीर के नभ नतमस्तक
घेर – घेर रहा स्वप्निल दरवाजा के बुलन्दी
फौलादी बढ़ चला शिखर अमरता के
जो तपता आया तन – तन जिसके प्रचण्ड

बढ़ चला धूल भी वों अभी धूमिल
कलित है तल आया त्वरित कल से
असमञ्जस हूँ क्यों मै अपरिचित ?
लौट आऊँ ओट के दुल्हन नभ से

तरुवर छाँव के क्या एक तिनका सहारा ?
क्या उँड़ेल दूँ आहुती भी दूँ किसका ?
तड़पन में कराह रही कौन जाने मेरी राह ?
टूट के बिखरा कब वसन्त , कब पतझड़ भला ?

पङ्ख पङ्क्ति को तो हेर कौन रहा ?
सब तन्मय मोह – माया के जञ्जाल में
आज यहाँ अट्यालिका कल वो बाजार
हो चलें भव रुग्णनता के हाहाकार…

यह व्याथाएँ परिपूर्ण नहीं है अभी है बाकी
पूछ लो उसे जो बाँधती कफन पेट को
लूट – लूट साम्राज्य का क्या नेस्तानाबूद ?
मत करो और नग्न जिसे लिबास नहीं

21. हुँकार मेरी भव में

छाया कहाँ माँगू कब और कहाँ से ?
कौन पूछ रहा है किनको किन्तु अकिञ्चन ?
मिलता हर सुख जहाँ हुँकार मेरी भव में
स्वर शङ्खनाद हूँ मैं गुरुदेव के पुनीत चरणों में

गङ्गा की धार भी मिलती व यमुना का शृङ्गार
क्षितिज ओझिल किरणों से आती वो रश्मि प्रभा
प्रज्वलित हो उठे मस्तिष्क के भव सौन्दर्य में
हिल उठे दिव समीर धरा जहाँ होती विहग के नाद

पथ – पथ प्रशस्त करते जिनको तिनका
बिछाती तन – मन में ऊपर – ऊपर बढ़ते कदम
मत रोक उस प्रस्तर को तू कर दें किनारे स्वप्निल के
आवाह्न करूँ चरण वन्दन करूँ मैं गुरुवर का

यह आँगन स्वर झङ्कृत सार के दृग दोहे तस्वीर में
शागिर्द बनूँ समर्पण मेरी कब – कब के चिर दिवस
आदि न अंत हो विष दर्प काहिल कटु उपदंश
लौट चली मैं मृदङ्ग ताल स्वर स्पन्दन में कब से

निशां की जुन्हाई देखो तो हो रहें कैसे जैसे रवि
तम भी कहाँ विलीन में बिखेरती अपरिचित छाँव में
यह युगसञ्चय सभ्यता संस्कृति के धरोहर को
गूँथ – गूँथ के रचाती
और जहाँ होती शक्ति किसलय विनय ज्ञान के कल

22. सञ्चार जीवन की निशानी

सञ्चार जीवन की निशानी ,
विल्वर श्रैम की अनुभव साझेदारी ।
अपना अभिव्यक्ति अपना भरोसा ,
यहीं हैं आपना सोशल मीडिया ।

स्त्रोत – सन्देश – माध्यम – प्राप्तकर्ता ,
यहीं है सञ्चार प्रक्रिया जहाँ ।
देवर्षि नारद संवाद सेतु है ,
जहाँ महाभारत के ही संजय ।

अभिलेख – शिलालेख पुरातन के ,
सहवर्ती है अशोक और चंद्रगुप्त के ।
तमाशा – रागनी – साङ्ग – लातिनी के ,
नाट्यरूपों – कथावाचन शैली के ।

भावना – विचार का आदान – प्रदान ,
जहाँ मानव सभ्यता का विकास सञ्चार ।
लिपि से मुद्रण के सफर तक ,
एकता – सम्प्रदायिकता – मानवाधिकार का सार ।

अंतः वैयक्तिक और अंतर वैयक्तिक ही ,
राष्ट्र के मानस का निर्माण बनाती ।
ध्वनि तरङ्ग – प्रकाश तरङ्ग – वायु तरङ्ग ही ,
हैं सारे माध्यमों का समागम ।

पुण्डालिका से आलमआरा चलचित्र ,
गतिशील पारदर्शी जीवन निर्माण ।
संस्कृति व राष्ट्र निर्माण रेडियो अनुदान ,
जहाँ मिली विश्वयुद्ध सूचनाओं का सारक्ष ।

भाषा – लिपि – छपाई – प्रवक्ता से ,
सांस्कृतिक – मानसिकता तक़रीबन ।
अंकुर – असत्य – बहस – मुबाहिस ही ,
दुराचारिता – मानवाधिकार हनन का प्रतिबिम्बित ।

पत्रकारिता मिशन थी आजादी के मर्तबा ,
व्यवसाय मिशन है आजादी के पश्चात ।
पत्र – रेडियो – डाक – टेलीविजन – इण्टरनेट ,
यहीं है पत्रकारिता का सार ।

सङ्कलित – सम्पादित – पाठक समावेश ,
यहीं है जनसञ्चार का प्रिण्ट मीडिया ।
रिपोर्टिङ्ग और सम्पादन ही ,
हैं बौद्धिक और पत्रकारिता का कौशल ।

फेसबुक – ट्विटर – विकिपीडिया ,
जहाँ मिलती लोगों को अपनी रूपरेखा ।
जनसञ्चार का एक ही उसूल ,
सार्वजनिक हित – मूल्य – आचार संहिता ।

परिवारिक समाजिक रिश्तों की बुनियादी ,
जहाँ मिलता राष्ट्र निर्माण व सामाजिक उन्नयन ।
भारत का यह अटूट सपना है ,
धर्मनिरपेक्ष व लोकहितकारी राष्ट्र अपनाना है ।

23. सान्ध्य क्षितिज

पलट गयी करवटें जीवन के उस पन्नों के
इतिवृत्त भी किसका सार देखो कल के कर में ?
दर – दर में बिखरा मिलिन्द मधु के भार कहाँ ?
झख़ के तनु कहर छायी वहीं वारि के गेह में

अनिल – धुआँ , प्रवात – अनल वक्षस्थल को चिर रहा
भव छिछिल में तनती आशीविष के विष में
मेघ विलीन होती सिन्धु में क्या भला और का ?
अट्टालिका के चिरप्यास में करती क्षत – विक्षत परि का

जन – जन में दारुण खड्ग लें कौन दौड़ रहा हृदय प्लव ?
मिथ्या दोष चिता के विष धोएँ कहाँ कलङ्क ?
सिञ्चते शोणित कौतुक भरा किञ्चित भी नहीं तन के
क्षण – क्षण के दामिनी नहीं स्वप्न का भी क्या आसरा ?

यह अंकुर बूँद भी दबे तले विकल – विकल थल है
अश्रु फूटती किसका घूँट में चिर – चिर सृष्टि तप के ?
पतवार धार के त्वरित प्रच्छन्न कहाँ द्युति हुँकार ?
स्वयम्भू भी घूँघट दें स्वत्व को करते निरन्तर मलिन

महासमर रणधीर अंगार के रग – रग के दिग्गज डोले
रण है चक्रव्यूह अभिमन्यु के भीतर – भीतर के समर
विशिख भी कहाँ लौटी कमान से जो तस्वीर प्रस्तर में ?
कैवल्य के पन्थ में भव क्यों नहीं दृग धोएँ सान्ध्य क्षितिज के ?

24. क्यों लौट रहें नभ ?

मधुर – मधुर विकल के तन कौन कहें तन्हा इसे ?
बेला अंतिम कहाँ चली पतवार भी नहीं तम के शून्य भव ?
कल के पन्थ – पन्थ में कौन विकल क्यों लौट रहें नभ ?
इस असीम के स्वप्न में खोजूँ किसे जो बीती स्वप्न के कल ?

यह सर्ग को कौन सुनाएँ कोई शप्त तो कोई हो चलें शव ?
इस सीकड़ के कौन सतत शिखर – शिखर के चलें खग ?
मनु नहीं मनुजात के हो चले कब के म़नुजाद
विभूति – विरद के भुवन में रत यह विभात सबल सर के स्वर

शम शय्या कहाँ बिछी मुफ़लिस शर स्व कहाँ कलित ?
यहाँ साँस भी टिकी स्वेद सहर के शहर सम्बल सूर के कौन लय ?
यह सुधि भी कौन लीन्ही सदेह वरन् शकट क्यों विपन्न विपिन के ?
भोर – विभोर के अर्क है किस मत्त में मद के किस प्रतीर ?

इस लक्ष में कौन छिपा क्या कौन्तेय या विभीत के रङ्क ?
समर – समर में क्यों रण खोज रहा है कौन विकल के तन ?
अर्जुन नहीं अभिमन्यु नहीं यह दुर्योधन – दुशासन के दंश
शपथ – शपथ में क्या असित , हुआ क्यों द्युत क्रीड़ा के चल ?

यह किसका विकराल उर्ध्वङ्ग होती अचित इन्दु या सूर के ?
अज्ञ – विज्ञ , अभेद – अभेद्य , आसत्ति आसक्ति ईश के उत्पल नयन
इति के कूल या ईति अनुघत अशक्त असक्त के उन्मुख अतल
कली कुसुम में विहग के कूजन नहीं यह ईड़ा है किसकी ?

Language: Hindi
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