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30 Sep 2021 · 36 min read

मँझधार ०२ ____०२

1. विधान

जीवन का राग सङ्गीत है ,
जीवन का अस्तित्व अतीत है ।
प्रकृति रूपी अपना धरा ,
सम्पदा जहाँ भरपूर है ।
मानवता का जीवन ही ,
मानव कल्याण का स्वरूप है ।
मानव , मानव के हमदर्दी ,
यहीं प्रेम और आस है ।
प्रकृति का यहीं अलङ्कृत काया ,
अपना – अपना रूप है ।
पर्वत – पहाड़ – मैदान – सरोवर ,
यहीं हिमालय की रूमानी है ।
जहाँ विधाता की अद्भुत माया ,
यहीं विधान अविनाशी अभेदी है ।

2. ऐ नर्स

स्वास्थ्य क्षेत्र की भूमिका
जनमानस का कल्याण है
और मिलता बहनों का प्यार
जहाँ साहस है उनकी गाथा

मानवता कर रही चित्कार
व्याकुल हो रहे मन तेरे हैं
न कोई दर्द न कोई आराम
ज़िन्दगी बस है देश के नाम

तुम्हारी इंसानियत पर नाज है हमें
तू फरिश्ता भी और माँ के रूप भी
गोली – दवा – सुई के मोहताज हैं हमें
तू कर्तव्यनिष्ठ के चरमोत्कर्ष हो

तू अपारदर्शी और दर्पण के प्रतिबिम्ब
जहाँ सम्मान – सुरक्षा बचाएँ रखती हो
तू परिचारिका सेवा का आदर्श हो
तुम एक वरदान भी व जगदीश्वर हो

3. आम मञ्जरी

मौसम है बड़ा सुहाना
खेतों में सरसों की डाली
जहाँ है आम मञ्जरी का बहाना
कितना कोमल कितना सुन्दर !

मधुकर कर मधुमय निराली
जहाँ है सुन्दर – सुन्दर हरियाली !
व्योम में मेघ घटा का आबण्डर
बच्चों की टोली टिकोला का लिप्सा

खट्टी – मीठी टिकोला का मजा
छोटे – छोटे कितने मोहक !
कहीं तरुवर की छाया
कहीं खग की बसेरा
कहीं पिक की कूक बोल

सुन्दर – सुन्दर लालिमा आकृति
ज्येष्ठ – आषाढ़ का आवना
मधुर – मधुर आम के लुत्फों का महीना
अद्भुत सुन्दर मनोरम – सा

4. सब भारत एक हो

भारत देश की आजादी
शहीदों के शहादत कुर्बानी
वीर – वीराङ्गना की अटूट कहानी
अमर है , अमर है , अमर है ।

भारत सोने की चिड़िया
नालन्दा जैसा विश्वविद्यालय रहा
बौद्ध – जैन – हिन्दू सम्प्रदाय
अमर है , अमर है , अमर है ।

रामायण – महाभारत जैसा महाकाव्यों का
जहाँ है आदर्शमूलक का ज्ञान
पितृवंशिकता – मातृवंशिकता का सम्बन्ध ही
अमर है , अमर है , अमर है ।

महात्मा गाँधी जैसे राष्ट्रबापू
अशोक महान जैसा शासक हो
कृषि के भगवान किसान ही
अमर है , अमर है , अमर है ।

भारत कृषि प्रधान का गौरव
जहाँ होती है गुरु की महिमा
” सब पढ़े , सब बढ़े ” का सपना
” सब भारत एक हो ” की अवधारणा
अमर है , अमर है , अमर है।

5.ओ मेरी माँ

माँ तेरी महिमा अपरम्पार
संसार की जननी है तू
सब दुख – दर्द हर लेती है तू
तू ही पालनकर्ता सर्वेश्वर

तेरी छाया तरुवर की छाया
तेरी चरणों में ब्रह्माण्ड की काया
प्रथम गुरु आप ही कहलायों
मिलती जहाँ निस्वार्थ भावना

तेरी करुणा पृथ्वी से भारी किन्तु
फिर भी अपने माँ को भूल जाते क्यों ?
उनकी करुणा को टेस पहुँचाते क्यों ?
आखिर क्यों ? आखिर क्यों ? आखिर क्यों ?

एक माँ सौ बेटों को पाल लेती
किन्तु एक बेटा को भी माँ बोझ दिखती है !
क्यों प्राणप्रिया ही सर्वस्व दुनिया है ?
क्या यहीं ममता का प्रतिफल है ?

तू ही मेरी मदर टेरेसा की महिमा
तू ही मेरी जन्नत की दुनिया
मैं तेरा संसार हूँ , तू हमारी छाया
ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ

6. हयात इन्तकाल

दुनिया का हयात इन्तकाल
क्यों कर रहें हाहाकार ?
क्या कोरोना की महामारी ?
या कृतान्त का साम्राज्य
पवन का पवनाशन प्रकोप
प्राणवायु माहुर – सा
इसका उत्तरदायी कौन !
क्या भलमनसाहत ?
क्या मानुष का अपरिहार्यता ?
आबादी – दौलत – बीमारी
असामयिक परिवर्तन क्यों ?
क्यों प्रभञ्जन की गलिताङ्ग दशा ?
मख़लूक रक्तरञ्जीत क्यों ?
जीवनसाधन क्षणभङ्गुर क्यों ?

7. देश की धरा

पवन – धरा – नीर – हरियाली
प्रातः कालीन का अनातप में ,
सागर – नदी – झीलों का सङ्गम
पारितन्त्रीय अन्योन्याश्रय सम्बन्ध हो ।

जैविक – अजैविक सङ्घटको का ही
प्रकृति का अपना प्रतिमान हो ,
कहीं सूखा तो कहीं अतिवृष्टि छाया
किसानों की अपनी विवशता रहा ।

अवनयन व जनसङ्ख़्या का ग्रास
संसाधन न्यूनीकरण दोहन है
भौतिकवादी बन रही अभिशाप
नगरीय व औद्योगीकरण का उत्कर्ष हो ।

पर्यावरण का विकासोन्मुख
प्रायोगिक – मौलिकवाद अनुशीलन हो ,
नैसर्गिक और मानव निर्मित की
मानव हस्तक्षेप की धारा हो ।

पशु – पक्षी लुप्ते कगारे पर
जहाँ मशीनीकरण भक्षक हो ,
वसन्त ऋतु दिवस की बहार
जहाँ नूतनवत् कलियाँ हो ।

जीव जन्तु पर्वत जलवायु मैदान
जैवमण्डल प्रकाशसंश्लेषण काया हो ।
पर्यावरण का संरक्षण उद्देश्य ही
सरकार का जहाँ सर्वोच्च प्राथमिकता हो ।

पर्यावरण ही हमारी संस्कृति है
जहाँ अपना देश भूमि धरा हो ।
देती जहाँ जीवन निर्वाह धरती हुँकार
जन – जन हो उठ मशक्कत करती तेरी है ।

8. स्वतन्त्रता की बजी रणभेरी

एकता – अखण्डता – समरस भारत
भारतीय जन की स्वप्न निराली
एकता की अंदरूनी शक्ति ही
अदब अगाध अनुयायी

तृण – तप्त – तिमिर – सा
दर्प – दीप्त देवाङ्गना दास्ताँ जीवन
मनीषी मयूरध्वज मेधाशक्ति महिमा
कनक कवि की अपनी शोहरत

सूरमा स्वावलम्बी का ज्ञान
स्वतन्त्रता की बजी रणभेरी है
अहिंसा ही परमो धर्मः का नारा
शहीदों की आत्महुती अविनाशी

जहाँ उनके चरितार्थ काया
और उनकी शौर्य पद वन्दन में
स्वतन्त्रता का अम्बर छाया था
विहङ्गम जैसी स्वतन्त्र उड़नतश्तरी

हयात का अतुल समादर परितोष
संविधान के गर्वीला गौरव
अशोक चक्र अपना पथ प्रदर्शक
ज्योतिर्मय जीर्णोद्धार तरुवर

अनवरत अटल था विकास का सपना
विरासत सम्पदा की अपनी प्रभा थी
विविध धर्म – संस्कृति – भाषा का समागम
स्वः कीर्तिमान अपना देश भारत

9. विपत्ति का तान्ता

जलसा ही जीवन विपत्ति का तान्ता
अंकाई अंगारा – सा
अंग सौष्ठव का आकर्षण
अब तव दोषारोपण
तासु अपजस बाता – सा
बाबे – गुनाह हई सजायाफ़्ता
आलमे – हुस्नो – इश्क तवाज़ुन ही
रिन्द व अंजुमने – मय की फ़ितरत
आबो – ताब – अश्आर
दुश्चरित्र – दुष्चक्र – दुर्मुख – सठ – फनि
मनुज काऊ तजहु दियों
तजि अंक शीर्ण का क्षत – विक्षत
क्षुब्ध व अशनि – पात विप्लव प्लावित
मनु हत व शस्य – सा
अस मम् विदेह निठुर भग्नावशेष कियों

10. ख़ामोशी

गोधूलि बेला थी
आसपास चहल – पहल – सा था
कहीं लोगों की भीड़
कहीं तो गाड़ियों की गड़गड़ाहट
वहीं घड़ी जब मैं….
आदर्श सखा का स्मरण आया
मिथ्या ही वार्तालाप के बाद
सखा की ख़ामोशी उपेक्षा – सा
मैं सुध – बुध खो बैठा
उसके ठांव में शान्त – सी माहौल
उसके तह में बरगद पेड़ों की
प्रतिकृति प्रणयन – सा था
वहीं पक्षियों की चहचहाहट
खुशनुमा माहौल से भावविभोर भी
कहीं दूर पतङ्ग से ही रमणीय
जैसा निनाद था
कुछेक मील आपगा का कर लेती
नीर मनोहर – सा तिरोहित था

11. संस्कृतियों का सार

संस्कृति किसी देश की आन है
शान और अभिमान है
मनुष्य है तो सभ्यता है
ज़िन्दगी का भाग ही संस्कृति है

सभ्यता ही है जीवन पद्धति
सिद्धान्त व संस्कृति मानव के धन
संस्कृति से ही मिलती है विकासन्नोमुख
यहीं है मानसिक व भौतिक सन्तुलन

संस्कृति ही है हमारी संस्कार
यहीं है मनुष्य के विकास आधार
आध्यात्मिक का ज्ञान कराता
सभी जनों का मार्ग प्रशस्त करता

कलाओं का विकास संस्कृति
मानव सभ्यता का प्रादुर्भाव संस्कृति
यहीं विकास का ऐतिहासिक प्रक्रिया
जहाँ मिलती बुद्धि व अंतरात्मा का विकास

सांस्कृतिक विरासत हमारी पहचान
यहीं हैं धरोहिक का प्रत्याभूत भी
धार्मिक विश्वास और प्रतीकात्मक
अभिव्यक्ति ही संस्कृतियों का मौलिक तत्व

आधिभौतिक व भौतिक संस्कृतियाँ
जहाँ सामाजिक जीवन प्रभाव के उद्यमीस्थल
यह हमारी अंतस्थ प्रकृति की अभिव्यक्ति
जहाँ है ऐतिहासिक और ज्ञानों का समावेश

हमारी भारत की संस्कृति सर्वोपरि
जहाँ अनेकता में एकता का सङ्गम
वहीं होती है नन्दिनी की पूजा
जहाँ सम्प्रदायिक ईश्वर का समागम

12. होली आई

होली आई होली आई
ढ़ेर सारी खुशियाँ लायी
रङ्गों का त्योहार है
बच्चों का भी हुड़दङ्ग
कहीं पिचकारी की रङ्ग तो
कहीं कीचड़ों की दङ्ग
जहाँ भी अबीर – गुलाल के सङ्ग
कहीं ढोल बाजा तो
कहीं अंगना की गीत – गाना
फाल्गुन की होली
वसन्त की होली
जहाँ खेतों में सरसों
इठलाती हुई गेहूँ की बालियाँ
आम्र मञ्जरियों के सुगन्ध
ढोलक – झाञ्झ – मञ्जीरों के सङ्ग
कभी राधाकृष्णन के सङ्ग
कभी ज़हांगीर नूरजहां के रङ्ग
फाग और धमार का गाना
कहीं वसन्तोत्सव
कहीं होलिकोत्सव
कहीं नृत्याङ्गना की नृत्य
तो कहीं कलाकृतियों में
भाईचारा व मित्रता का भाव ही
होली का यहीं अहसास कराता

13. निर्झर

हमारी धरती हरियाली होगी ,
जहाँ भौगोलिक विविधता हो ।
पर्वतीय – मैदान – तटीय सङ्गम ,
हिमकर से हिम निर्झर हो ।

वसन है जहाँ अरण्य का ,
धेनु का जहाँ गौरस हो ।
मिलती है वहीं हरीतिमा ,
हलधर का जहाँ हरिया हो ।

आबोहवा का समागम ,
जहाँ सरिता की बहती धारा हो ।
जगत का आधार है वहाँ ,
जहाँ परि का आवरण हो ।

मनुज का अस्तित्व है वहाँ ,
जहाँ मानव की मानवीयता हो ।
चरण स्पर्श करती साहिल ,
जहाँ पारावार की घाट हो ।

तरुवर की छाया है वहाँ ,
जहाँ पेड़ों का आबण्डर हो ।
पृथ्वी का नभ है वहाँ ,
नग का गगनभेदी जहाँ ।

14. चान्दनी रात

गर्दूं आभा से अलङ्कृत
चान्दनी रात कितने सुन्दर !
काले – काले अंधियारो सङ्ग
दो पक्षों के संयोजन से
मास से वर्ष भी बीत जाना ,
विश्वरूपी आद्योपान्त प्रतिनिधि
शशि – सितारों के सङ्ग
सर्वव्यापी प्रहरी है ।
कभी ठण्डी – ठण्डी बयारो के झोंके
तो कभी बारिश की बूँदे
कभी गर्मियों से तरबतर
तन – मन को शीतल कर देती
यहीं कलाविद् व्योम का
जो है कुदरत का करिश्मा

15. चाहता क्या है कोरोना ?

कोरोना आया…..
कहाँ से आया ?
बोलो…..
कौन लाया ?
साथ में सङ्क्रमण लाया
शताब्दी बाद फिर महामारी आया
क्यों होता है शताब्दी बाद ?
इंसानी सभ्यता पर हमला
इंसान बेबस क्यों हैं ?
प्लेग – हैजा – स्पेनिश फ्लू – कोरोना
करोड़ों का जद से मृत्यु तक सफर
यह महामारी नहीं तबाही है ।
यह इत्तेफाक है या नहीं
यह किसी भगवन् का श्राप
या फिर प्रकृति का
क्या चाहता है ?
मनुष्य का पाप धोना
या फिर मनुष्य सभ्यता मिटाना
आखिर चाहता क्या है कोरोना ?

16. फूल के दो क्यारी

फूल के मनोहर तस्वीर
कितने सुन्दर कितने सुरभित !
सबसे न्यारी सबसे प्यारी !
कहीं लाल तो कहीं बैङ्गनी
यहीं है प्रकृति रूपी प्रेमी

कुदरत का इन्द्रियग्राह्यी
पेड़ – पौधों की शान है
प्रेम और सौन्दर्य का प्रतीक
वीरों की गाती धोएँ गाथा
जहाँ व्यष्टी का शहादत है

हिमकत व कवि का इल्म ही
सम्प्रदायों का भी स्तत्व है
है वित्तीय विपणन में महत
संस्कृतियों के यहीं धरोहर है

मिलिन्दी की यहीं दिलकशी
आदितेय का है महबूब –
कीट व जीव का समागम
है व्याधि का उपचार
जहाँ पुष्पण की प्रक्रिया है
यहीं फूल के दो क्यारी…

17. जल है

जीवन की शक्ति है जल
जल के बिना संसार नहीं
जहाँ जीवों की है निर्भरता
और पेड़ – पौधों का भी
संसार का अस्तित्व ही
जल है , जल है , जल है ।

दुनिया का आरम्भ यहीं है
जहाँ हुई जीवों की उत्पत्ति
आदिमानव से मानव बना
जल से जलवायु बना
पृथ्वी का दो तिहाई भाग
जल है , जल है , जल है ।

हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के
युग्मों से हुआ जल का निर्माण
वाष्पीकरण और सङ्घनन से
जल से जलघर बना
नादियाँ व सागरों का सङ्गम ही
जल है , जल है , जल है ।

ठोस , बर्फ व गैसीय अवस्था
ही जल का संयोजक है
प्रकाश संश्लेषण और श्वसन
ही जीवन का मौलिक आधार
रासायनिक और भौतिक गुण ही
जल है , जल है , जल है ।

18. राम आयो हमारे अवध में

राम आयों हमारे अवध में
चारों ओर खुशियाँ लायों
दशरथ के आँखों का तारा
रघु के सूर्यवंशी कुल कहलायों
राम आयों हमारे अवध में…..

मानव की मर्यादा लायों
शान्ति का दर्शन दिलवायों
गुरु वशिष्ट की शिक्षा से पूर्ण
वहीं विश्वामित्र के युद्ध कौशल परिपूर्ण
राम आयों हमारे अवध में…..

मिथिलाञ्चल में सीता के स्वयंवर से
एकल विवाह का सिद्धान्त लायों
अपने पिता के वचन निभाने
सीता और भाई के सङ्ग वन को गयों
राम आयों हमारे अवध में…..

जहाँ भरत के भातृ प्रेम हो
राम और सुग्रीव जैसा मित्र
मानव – वानर के सङ्ग
अधर्म पर धर्म की जीत दिलायों
राम आयों हमारे अवध में…..

19. पत्रकारिता

आधुनिक सभ्यता का सार है
पत्रकारिता हमारा विकास
दैनिक – साप्ताहिक – मासिक – वार्षिक
लोकतन्त्र का मुकम्मिल दास्ताँ यह

समसामयिक ज्ञान का आधार
बाजारवाद व पत्रकारिता अभिसार में
कार्य कर्तव्य उद्देश्यों की आचार संहिता
आत्माभिव्यक्ति व जनहितकारी समावेश

समाज की दिग्दर्शिका है देश का
विकासवाद का निरूपण जहाँ
सामाजिक सरोकार की दहलीज़
लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ की परिधी

बुनियादी कालातीत बहुआयामी
सूचनाओं का अधिकार है जहाँ
रहस्योद्घटन सामाजिक सामञ्जस्य
खोजी पत्रकारिता का है सिद्धान्त

समाजवादी की आधारभूत शिला
सशक्त नारी स्वातन्त्र्य समानता जहाँ
कर्त्तव्यपूर्ण सदृढ़ राष्ट्र का प्रवर्द्धन ही
सामाजिक अपवर्तन उदारीकरण है

20. मेघदूत

चलूँ मैं कहाँ पतवार भी नहीं
परवाह नहीं पन्थ को अवज्ञा ही भुजङ्ग
राही को राह नहीं दिखाता कोई
पलको में पड़ा आँसू भर – भरके

विस्तीर्ण अथ लौट चला शून्य में
शून्य में क्यों नहीं दिखती दिनेश ?
मुरझाईं फूल से जाकर पूछो ?
क्या मधुकर आती तेरी भव में ?

यह अहि आती नहीं मधु विभावरी
देवारी भास न लौटती क्षितिज से
निर्विकार स्तुती निवृत्त स्वर में
लें राग चल यौवन अलङ्कृत

मिट्टी भी धोता लौकिक लिप्त धरा
फिर क्यों लुप्त अमौघ धार मलिन ?
यह लौह चिङ्गार फौलादी के नहीं
विरत शान्ध्य नहीं पानी के

प्राच्य नही कबसे मैं इन्तकाल नज़ीर
स्मरण की छाया नहीं क्षणिक हीन
तिनका क्या एक – एक चिरता नभ ?
यह एका करती मेघदूत घनीभूत

क्रन्दन क्यों करती अम्बूद अभ्र में ?
आती क्या पिक मयूर होती उन्माद ?
टूट पड़ा दीपक खण्डिन ज्वार में
यह हलाचल घूँट क्या विस्तृत प्रथम के ?

21. दिवस क्या लौट गई ?

देखा जब समय की पङ्क्ति को
चल चल चलाचल जैसे….
ऊपर – ऊपर , ऊपर होते बढ़ते कदम
सब बँधे है बिछाता इसमें

तरणि क्या वो बटोरती राह ?
यह गो की देखो सार….
साँझ कब का आता , कबसे ?
तम कब छाती , कब होती प्रभा ?

समाँ क्या नहीं मिलता किसी को ?
अश्म का पहरा देता कौन है ?
अविरत क्या निशा रहती नभ में ?
फिर असित में ही कुञ्चित क्यों है ?

केतन विजय के लें जाता कौन ?
दिवस क्या लौट गई कुतूहल सर से ?
किञ्चित छू अमरता के कहाँ नव !
अचल परख रख लें तू कल

विशिख कौन्धती क्षिति मर्त्य के वन
कस्तूरी मृग कहाँ खोजती स्वयं में ?
समीर उर में ही क्यों कनक द्युति छिपा ?
यह प्रसून नहीं ‌सृष्टा ज्योति के

22. राह यूँ डगमगा जाते

राह यूँ डगमगा जाते करते – करते चहुँओर
यह ओट में क्या छिपा खोज रहा है कौन ?
तम भी कहाँ देती पथ के वो मलिन धूल
शशि भुजङ्ग रन्ध्र में ओझिल तिरती कहाँ किसमें ?

उर भी बोली दामिनी के नभ नग शिखर
ऊँचे – ऊँचे विलीन क्षितिज से दिवा दूत के नहीं
असित में कहाँ छाँव यह भी ओक किसका ?
छवि क्यों नहीं खीञ्चती तड़ित् नीरद अभ्र से ?

लौटती शिखर से पूछ कहाँ जाती प्राची विप्लव ?
यह क्रान्ति उर्ध्वङ्ग उठी कल – कल कहर केतन
घनघोर घन में छायी कौन – सी इन्द्रधनुषीय ?
सतदल सान्ध्य का फिर साँझ के गोधूलि रैन

यह गीत को कौन जानता पूछ रहा है कौन ?
ध्वनि स्वर परिचित नहीं हेर – हेर लौट रहा ?
भू , अनिल , तोय , तड़ित् मेघ अब कहाँ होती स्पन्दन ?
किञ्चित कौतुक चल – चल दिवस प्रतीर के दोजख़

पारावार तट को न देख वो भी है मँझधार में
तू भी लौट चल स्वयम्भू बन उस धार सरित्
लकीर को देख उन्माद लिए क्षिति को कैसे करती अलङ्कृत ?
बढ़ – बढ़ आँगन के तृण – पिक स्वर बिन्दु के राग

धारा की धार में कृपण यह स्वप्न भी है किसका ?
तिमिर घनघोर के समर में कौन है फँसा विस्मित ?
धुँधली दिशाएँ भी ध्रुव – सी मेघदूत भी लाऐगा कौन ?
ओझिल ज्योत्स्ना से भी कहाँ आती वो प्रभा असि – सी ?

कल्पना के बुलबुले में भी खेलता वों कौन रञ्ज किरण ?
कदम – कदम दुसाध्य भरा किन्तु कल – कल तरङ्गित मन
लौट – लौट दरमियान के दहलीज़ कौन – कौन दिवस के पन्थ ?
मैं भी कहाँ , क्यों नहीं देती निशा निमन्त्रण पङ्किल के नयन ?

यह मेघ – मेघ के कुन्तल बिछाता इसमें कौन खग है ?
उड़ – उड़ नभ में तन को कहाँ छिपाती उर में क्यों ?
क्या इन्तकाल हो गया नीड़ भी नहीं जाने वों कौन ?
स्तुति भी कहाँ देती क्षणिक आधि – व्याधि की अनुभूति ?

2

1. बरखा आई घूम – घूम के

बरखा आई बूँद – बूँद के करते मृदङ्ग
बढ़ – बढ़ आँगन के चढ़ते – उतरते बहिरङ्ग
सङ्गिनी चली बयार की लीन्ही सतरङ्ग
जल – थल मिलन मिली छूअन हर्षित अनुषङ्ग

ओढ़ घूँघट के दामिनी स्वर में झूम – झूम
आती क्षितिज से घूमड़ – घूमड़ घूम – घूम
घोर – घनघोर पुलकित आशुग ठुम – ठुमके
स्पन्दन क्रन्दन में सङ्गीत रश्मि नूपुर – सी रुनझून

निशा बिछाती विभोर विरहनी सावन
गुलशनें निवृत्ति निझरि – सी स्वर आप्लावन
पिक मीन सिन्धू वात तड़ित् सङ्ग करावन
हरीतिमा नभचर जीवन सृजन कितने मनभावन !

कर जोर विनती तुङ्ग धरा करती आलिङ्गन
इन्द्रधनुषीय छटाएँ छलकाएँ तरणि आँगन
कृष्ण राधा – सखियाँ सङ्ग करती प्रेमालिङ्गन
हो धरा प्रतिपल प्रेमिल धोएँ ध्वनि लिङ्गन

हुँ – हुँ स्वर कलित भव में चिन्मय हुँकार
तड़ित् ऊर्मि वारिद अँगन में ऊर्ध्वङ्ग धुङ्कार
पन्थ – पन्थ पन्थी आहिश्वर रव ओङ्कार
मण्डूक ध्वनि नतशिर झमाझम बरखा झमङ्कार

2. रणभेरी में रण नहीं

पंक्षी घोंसले से क्यों लौट रही ?
आजादी क्या इनकी छीन – सी गई !
या यहाँ कोई दरिन्दों का बसेरा है
भूखें – प्यासे है यें कैसे जानें ?
ज़ख़्म पड़ी चहुँओर प्याले वसन्त
दुर्दिन लौट गया उस क्षितिज से

करुणा व्याथाएँ को जगाएँ कौन ?
विभूत अरुण नहीं पन्थ – पन्थ में
उन्माद लिए कबसे अचल असीम
रणभेरी में रण नहीं आरोहन के
बटोरती ऊर्ध्वङ्ग मधुमय भुजङ्ग
प्यास भी बिखेरती अकिञ्चन नभ नहीं

कहाँ खोजूँ अमरता छू लूँ अविकल
आघोपान्त रहूँ तड़ित् झँकोर गगन
गुमराही नहीं मानिन्द निकन्दन उपवन से
स्वर – ध्वनि नूपुर के अभिजात नवल
बढ़ चला अलङ्गित पन्थ – पन्थ पतझड़ भरा
मज़ार में नहीं मञ्जर का पथ पखार

अम्लान – सी अदब करूँ मातृभूमि व्योम की
मुकुलित गिरिज पङ्किल से करती नतशिर
किञ्चित् कस्तूरी मिलिन्द मैं द्विजिह्व लिए
मही छवि उर में कुसुम मलयज
घन – घन घनप्रिया कैसी करती क्रन्दन ?
आँसू बूँद – बूँद करके धोएँ कलित नयन

3. लौट चलूँ मैं ?

मत पूछो कविता के बहाने मुझसे
बिखर गया टूट के तकदीर प्याले
शक्ति कहाँ मुझमें कसमसाहट भरी
उलझनें भी थी तमाशबीनों के तनी थाती
यह करतब कसाव तरि व्यथाएँ की
किन्तु यह धरा निहत नहीं जनमत में तन

लौट चलूँ मैं अब निर्झर भार के नहीं
यह द्युत कीड़ा भी नहीं पाण्डव के
बह चला वों कर्तव्यनिष्ठ के पथिक
शङ्खनाद आलिङ्गन के महासमर में मञ्जर
प्रतिज्ञा देवव्रत तरङ्गित करती आवाह्न
हरिश्चन्द्र शक्ति नहीं अब घनीभूत किसमें

अकिञ्चन अपार द्विज दुर्बोध पला
अद्भिज हूँ प्रवात परभृत प्रतीर के
रश्मि जग उठी केतन लिए प्राची में
क्षितिज से हुँकार कर रही धरा तम में
छवि तरणि उद्भव से चल दिया कलित
दक्ष किरणें लाँघती विसर्जित पन्थ में

क्यों नहीं ऊँघते राग ध्वनित मञ्जु में ?
ओट ढ़लकाती निमिष में जाग्रति विकल
सुभट दमख़म पावस घनीभूत निवृत्ति
मूँद व्याधि अक्षोभ प्रभूत प्रभात के
बूँद नीहार पिक दामिनी के नूतन चक्षु
अनी अभेद मही वसन निकेत चितवन के

4. कैसे भूल जाऊँ मैं ?

कैसे भूल जाऊँ मैं ?
आदिवासियों की दस्तूरें ,
प्रकृति जिसके थे सहारे
अंग्रेज़ों ने जिसे भी बाँध लिया
खानाबदोश की तन देखो
पसीनो से क्यों भीङ्ग रहें यें ?
वञ्चित रह रहकर जिसने
अपने पेट को भी सिल दिए
सङ्कुचित कितने हो रहें यें
क्या लुप्त के कगारे हैं ?
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

माताएँ की साधना को देखो
बहनें मुस्तक़बिल तन में खो रहें
पन्थी गुलामी की जञ्जीर जकड़े
उनकी व्यथाएँ तड़पन कौन जाने !
घर – भार इनका आग के लपटों में बिखेर‌ रहा
बच्चों के चित्कार को देखो दरिन्दो कभी ?
नग्न पड़ी इनकी पुरानी बस्तियाँ
पेटी भरना अभी भी इनकी बाकी है !
लुटा दो , मिटा दो वो पुरानी सभ्यता
भूखों को सूली पे लटका दो
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

हे भगवन् ! रोक लो अब इस बञ्जर को
ज्वलन मेरी असीम में बह चला
जानता हूँ पहाड़ भी मौन पड़ा
नदियाँ बोली मैं भी इन्तकाल
सूर्य तपन में है मेरी कराह
कबसे अम्बर गरल बरसा रहे
सुनो न ! लौटा दो बहुरि बिरसा को
तन्हा कलित कर दे इस भव को
स्वच्छन्द हो धरा स्वप्निल में बसा कबसे
निर्मल रणभेरी विजय समर झङ्कृत
कैसे भूल जाऊँ मै ………….!!

5. रात रानी आयी

रात रानी आयी पङ्ख पसारें
झिलमिल – झिलमिल कितने है निराले !
हैरान हो चला , पता नही मुझे…?
गुमसुम में क्यों खो जाते लोग ?
चिडियाँ भी गयी , सूरज भी गया…
पेड़ भी सोने क्यों चले गए कबसे ?

देखो चन्द्रमा की प्यारी – सी मुस्कान
रह जाते क्यों तुम आमावस्या को अधूरे ?
फिर पूर्णिमा को पूरे कहाँ‌ से चले आते हो !
आसमान हो गए जिसके प्याले – प्याले
असमञ्जस में मुझे क्यों तुम रखते हो ?
इसका भी रहस्य मुझे बताओ न

ऊपर – ऊपर देखो दिखता उद्भाषित तारें
यें छोटे- छोटे झिलमिलाते क्यों दिखते हैं ?
इन्हें माता – पिता का डर है या शिक्षकों का
घर जाने के लिए यें क्यों रोते सदा ?
मै भी रोता , तू भी रोते रहते
क्यों न चलों हम तुम दोस्त बनें चल

ध्रुव के कितने पास सप्तऋषि तारें हैं !
चारों ओर मण्डल सदैव जिसके चक्कर लगाते हैं
स्वस्तिक चिन्ह अग्रेषित रहने का सन्देश देती
शान्ति समृद्ध प्रेम का पैग़ाम पहुँचाती हमें
अरुण अगोरती अनजान प्राची क्षितिज से
बढ़ चला उषा सदैव सवेरे पन्थ पखारे

6. पन्थ

व्यथाएँ विस्तृत सरोवर में अलङ्गित
चान्दनी – सी धार विलीन करती मुझमें
रिमझिम – रिमझिम पाहुन वल तड़ित्
तरि अपार में अभेद्य उऋण कली

करिल कान्ति तनी में दीवा विस्मित
नीरज नीड़़ में परिहित विभूति विरद
सखी मैं सहर के द्विज स्वर मैं
अनुरक्त से बढ़ चला अनभिज्ञ अस्त

चिन्मय चेतन क्षणिक ज्योत्स्ना
तरुण द्रुम बहुरि तिमिर ज़रा
झोपड़ी छाँह बन चला निरुद्विग्न मैं
पाश में नहीं निस्तब्ध – सी निरापद

शबनम स्नेहिल अम्लान रणभेरी छरिया
वृत्ति व्याधि वल्कल विटप के विह्वल
मज़ार मेरी विरुदावली इज़हार के लहराईं
सौंह के अर्सा में आरोहन से चली बयार

चिरायँध नहीं विभूति सतदल के कलित गात
व्योम विहार बसुधा जीवन के नतशिर प्राण
डारि देहि तम भोर सुरम्य वरित वसन्त
उद्यत्त जनमत ज़र्रा से पृथु पन्थ के जवाँ

7. कलियाँ

तृण फरियाद सुनें कौन इस आँगन के ?
अनिर्वृत्त निगीर्ण स्वच्छन्द नहीं वो
क्षिति कुक्षि इतिवृत्त की आहुति दे दो
अकिञ्चन महफ़िल प्रबल अभिभूत अघाना

प्रलय पद्चिन्ह दहकता स्वर में
चिरकाल असि म्यान में क्या कदर ?
चातक क्यों हैं उस ओर उचकाएँ खड़ा ?
यह ईजाद ओछा अतल उदधि के

घनेरी कोहरिल की तृषित घटाएँ
मरकज विभा मयस्सर सफ़र के
जनमत लूँ बहुरि दरगुज़र के नहीं
महरूम दर्प – दीप्त तलघरा दूर

आदृत नहीं जो चिर गोचर विषाद
यह आतप नहीं विपद असार
चनकते कलियाँ को भी देखा मचलते
निमिष मग में बह चला तनते पङ्ख

सान्त प्रतिक्षण विसर्जन के मृदुल विस्तार में
पनघट तड़ित् मुलम्मा दरख़्यतों के
निठूर स्याही थी किरात चक्षु विभूत
अकिञ्चन ऊँघते मधुमय शबीह

8. पथिक

बदल क्यों गया ध्वनि कलित का ?
घूँट – घूँट क्लान्त व्याल ज्वलन में
टूट गया विह्वल वों प्राण से तलवार
कौन जाने मरघट के शृङ्गार नयन ?

बैठ चला है तू उन्मादों के
मशक्कत कर फिर गोधूलि हो जाता
यह आनन को न देख बढ़ चल अग्रसर
कल्पना के बाढ़ में बैठ चला हारिल

रुक मत घूँघट के सार में न विकल
एक तिनका भी नहीं विचलित तेरे स्वप्नों के
एक चिङ्गार तेरी है किसी और के नहीं
मनु चला मनुपुत्र भी अब तेरी है बारी

लौट चल फिर उस पथ के पथिक तू ही है
रागिनी स्वर के तरङ्गित कर तू प्राची है
यह दुनिया स्वप्न के ज़ञ्जीर नहीं चला
तू ही सम्राट हो स्वर झङ्कृत के प्याले

मौन नहीं सान्ध्य निर्निमेष निगूढ़ में
तू प्रकृति के रसगान तरङ्गित स्वर के
युगसञ्चय समिधा ज्वलित पङ्क्ति में अकेला
सदा द्रवित चीर नीहार अनुरक्त दृग स्वप्निल कलित भरा

9. मँझधार

चल दिया लौट मैं दरमियान के
वक्त के तालिम भी बढ़ चला असमञ्जस
मैं विस्तृत नभचर अमोघ प्याला
अवनि चला चिन्मय अश्रु अर्पण सार

प्रथम स्तुति कलमा नव्य जाग्रत के
निर्लिप्त प्राची उषा के दिग्मण्डल
उर्ध्वङ्ग आवाह्न सृजन पराग झरा
चीरता पङ्खों से असीम चला

चिन्मय आतप मेरी सुषुप्त अचिर को
अनृत निष्ठुर आकीर्ण आतप अचिर नहीं
ध्वज दण्ड का विष दंश भरा
शलभ क्षणिक प्राण न्योछावर दामिनी के

प्रभा पिराती है मुझे अंतर्ध्वनि के मलिन
रुधिर रक्तरञ्जित कनक हरिण हिलकोर
सैलाब उमङ्ग नहीं पथ पखार विधान
आवरण रङ्गमञ्च यथार्थ सञ्चित विराग

दरिया आलिम मँझधार में कम्पित मनचला
आहुति स्मृति स्वप्निल धूमिल शहादत
ज्वलित पङ्किल भस्मीभूत सुरभित
बह्नि तारकित शहादत शौर्य दुकूल

तिरोहित कोहरिल उन्मुत्त उन्मुक्त क़ज़ा
यह गात मेरे कजरारे क्लेश – सी विस्मित
काफ़िर शव शब गुञ्जित स्वर
कराली अंगीकार मुझे तप्त तीरे

10. वितान

ऐ बचपन लौट आ नव्य वसन्त में
क्यों रूठ गए कहाँ चलें गए तू ?
क्यों रुलाते मुझे इस सरोवर में ? बोलो !
मैं हूँ बिखरा निर्विकार दिगम्बर में

स्वप्निल चन्द्रवदन – सी स्मृति के
जाग्रत क्षणिक विकल तरुवर
विहग अंशु क्रान्ति में विप्लव
हयात कौतुक भी ध्वज में पला

दीवाने थी रैन भोर – सी तरणि
प्रज्वलित हो चला अनागत में
बन बैठा तन तरुवर में दामिनी
आशुग लहरी कलित अलङ्गित

निर्झरिणी प्लव कल – कल कलित
बह चला मैं मीन अब्धि धार
अपरिचित – सी हूँ इस कगारे वसन्त
व्यथा मेरी उर में बिलखती क्रन्दन

तन्हा – सी मैं विचलित शृङ्गार
अराअरी – सी नीड़ धड़कन दर्पण
मीठी सङ्गम दर्पण सौन्दर्य लिप्सा सरोवर
वितान मैं अब जीवन अंगार के

लूट गया हूँ मैं जीवन वसन्त से
खो गया मैं कण्टकाकीर्ण में लीन
प्रणय विष दंश निर्निमेष प्रहरी
मर्मभेदी उपाधी झल स्याही कलङ्क

11. तस्वीर

दीप प्रज्वलित मेरे तन को
हृदय में छायी शौर्य गाथा दस्तूर
वतन – वतन कर रहा तेरी पुकार मुझे
खून धार सीञ्चे दीवानें चलें हम

हिमालय – गङ्गा – धरती करें हुँकार
साँस – साँस तेरे करें हम फिदा
दुल्हन दामन संस्कृति अम्बर
एहसास हमारी बढ़ते – बढ़ते कदम

सरहद कुर्बानी दौलत बनें हम
नतशिर हूँ उन मातृभूमि बलिदानी
जले जुर्म शोला बरसे दामन
गङ्गा – सिन्धु – ब्रह्मपुत्र धोएँ तस्वीर

हुस्न – इश्क मौसम का नहीं रुसवा
पग – पग विहग पन्थ ध्वनि झङ्कृत
ऋषि – मुनि गुरुवरों का करतें वन्दन
सत्य अहिंसा धर्म के वाणी बनें हम

पूछ रहा भव क्यों रक्तरञ्जित मैं ?
मैं ठहर गया क्षणिक विभीत – सा
हो चला स्पन्दन क्यों दर्द भरा ?
निष्कृष्ट धार निहत नशा

12. समय

समय – समय का मारा है सब
सभी ने समय को जाना
न है कोई भेदभाव
चाहें राजा हो या रङ्क
जिसने समय का उड़ान भरा
उज्ज्वल भविष्य उनका हुआ
समय का पहिया क्रमतल है
अतीत – वर्तमान – भविष्य
अतीत से हमें ज्ञान मिला
वर्तमान हमारा जीवन
भविष्य के लिए सङ्घर्षरत है
ज्ञान – अर्थ – धर्म – मोक्ष की प्राप्ति
समय अति मूल्यवान है
विजयी इसके दिवाने हो चलें हरपल
समय है सङ्घर्ष का पहिया अग्रसर
जहाँ है सभी को जाना अविरत

13. पङ्क्ति

मत रुक बस एक पैग़ाम दे दे मुझे
लौट आ मेरी आँखों के तन्हा
मञ्ज़िल का नहीं वों अभी पथिक दस्तूर
न जाने कैद क्यों हो चला जग से ?

अपने रन्ध्रों कसाव से मुरझा रहा कबसे
तमाशा भरी दुनिया में जग से मैं वीरान
विवर हो चला अंतर्ध्वनि भयभीत के
व्रज हुँकार कोऊ थाम ले झिलमिल

बौछारें टूट पड़ी दुर्मुख तेरी गर्जन
मैं विचलित गिरहें उँड़ेल दी मुझे
जग निहारी दारिद – सी दुनी असहेहु
विप्लव रव गुलशनें जीमूत आलम

अंजुमने मय के आबो – ताब आशिक
हुस्नो – ईश्क में फ़िद फ़ितरत मदहोश
अँधड़ – सी नमित पङ्क्ति कजरारे न्योछावर
नौरस भव गम आँसू कर रहे अदब

स्नेह – सुरा मन्दिर में ध्वनित गात
मेरी उद्गार उर में उन्माद राग
विकल शिथिल तन में विषाद विह्वलता
निःशेष खण्डहर – सी किनारों में पला

त्रियामा पन्थ विधु कौमुदी ओझल
म्यान – सी शून्य सारगर्भित निराकार
उदयाञ्चल में बढ़ चला उऋण संसार
पन्थ से विचलित कहर दफ्न में समाँ

14.मैं हूँ आर्यावर्त

हम नभ के है रश्मि प्रभा चल
उड़ता गर्दिशो मे पङ्क्ति प्रतीर के अचल
केतन लें चलूँ मैं मातृ – भूमि के वसन्त
अरुण मृगाङ्क जहाँ निर्मल करती नयन

निर्वाण आलिङ्गन वतन के हो जहाँ तन
शङ्खनाद मेरी महासमर के हुँकार के हो भव
अर्जुन – कर्ण के प्रतीर जहाँ कृष्ण के जहाँ पन्थ
अभिमन्यु हूँ चक्रव्यूह के शौर्य ही मेरी दस्तूर

गङ्गा – सिन्धु धार वहाँ अश्रु मैं परिपूर्ण
नगपति हूँ आर्यावर्त के दृग धोएँ पद्चिन्ह
खिला कुसुम कश्मीर के शिखर चला सौगन्ध
स्वछन्द तपोवन तीर का लहूरङ्ग के मलयज

उन्माद बटोरती तस्दीक के गुमनामी पतझड़
मधुमय कलित मन में क्या करूँ मै प्रचण्ड ?
शून्य क्षितिज तड़ित् न जाने हेर कौन रहा ?
तरङ्गिनी तरी सर चला जलप्लावन तरङ्ग

उद्भाषित प्रतिपल का जगा कस्तूरी उरग के
त्वरित प्रच्छन्न वनिता वदन रुचिर उर में
यह द्युति त्रिदिव के इला गिरि समीर सर
नीले – नीले दिव नयन इन्द्रधनुषीय – सी मयूर

15. ऊर्ध्वङ्ग तिरङ्गा

प्रातः कालीन का विश्व जगा
देखो – देखो कितने हैं उत्साह
तिरङ्गा का शान ऊर्ध्वङ्ग ज़रा
बच्चें भी कर रहें इनको नमन

आन – बान – शान की दस्तूर अपना
अपना अम्बर – सिन्धु – धरा जहाँ
जीवन प्रभा चाँदनी हरियाली बनें
शपथ पथ समर्पण सर्वस्व रहें सदा

इतिहासों की यहीं धरोहर अपना
कई वीरों का आहुति रक्त धार चला
सरहद कुर्बानी के समर रङ्ग काया
हर कदम साँसों की लाश भला

दुल्हन दामन का शृङ्गार रचा
किन्तु वो भी सिन्दूर बूझ गयी
राखी बन्धन का आसरा कहाँ ?
माँ का आँचल भी सिन्धु में बह चला

परिन्दें भी अपना आँचल छोड़ चलें
लूट गये भारत की वों भी तस्वीरें
अखण्ड भारत का कसम टूटा जब
धूल की तरह हम भी बिखेर गये

जय हिन्द क्रान्ति दिवाने बढ़ चलें हम
अज़मत चमन छत्रछाया ध्वज धरोहर
आजादी स्वच्छन्द अमन , साहसी बनें हम
गूञ्ज रहा पुनीत , सत्य , सम्पन्न का सार

16. तिरङ्गा

सूर्योदय का इन्तजार मुझे
देश का तिरङ्गा फहराएँगे
राष्ट्रगान सर्वशक्ति सम्पन्न
देश की धरोहरों के शान
याद दिलाती वों कुर्बान

तीन रङ्गों का पथ तिरङ्गा
समृद्धि शिखर तक जाएँ हम
अशोक चक्र सब धर्म हमारा
चौबीस तीलियाँ जीवन हमारा
हिन्दुस्तान का वन्दन करते रहें हम

एकता का पैग़ाम पहुँचाएँ जहाँ
जन गण मन का धार बनें हम
हिन्दू – मुस्लिम – सिख – ईसाई
शान्ति एकता साहस बलिदानी
धरती माँ की आँचल की काया

भगत सिंह – गाँधी – चंद्रशेखर आजाद
बनें आजादी के वीर सिपाही हम
ध्रुव – प्रह्लाद – सीता – सावित्री है हम
लक्ष्मीबाई – महादेवी – मीरा के नाद
आदर्श जीवन का ज्ञान कराएँ हम

17. चक्रव्यूह

कागज पन्नों की क्या कसूर ?
इतिवृत्त का भी सार किसका ?
निरीह स्वर के कलङ्कित राग
न जाने व्याथाएँ की क्या दस्तूर ?

क्या प्रारब्ध है चातक जानें ?
मन चला गर्जन घनघोर झुरवन
दीवानें भी सङ्गिनी चातक के
ऊँघते सौगन्ध प्रमुदित विह्वल

ढ़लकती ऊषा क्रन्दन व्याधि उन्माद
बरखा कब के लौट चलें नभ से !
ऊँघते क्रान्ति निरुद्वेग ओट अरुण
कड़कती निगाह तजनित पाश

मातहत भौन में भस्मीभूत काया
अविरत अंगीकार मुलम्मा ओछा
रञ्जीदा भव अवहेला शव खिजाँ
दरख़्तो तड़ित् पतवार पनघट के

इन्द्रधनुषीय – सी चिरप्यास घनेरी में
उत्स्वेदन ईजाद घनीभूत किसमें ?
आहत औरन के तनी जाने कौन ?
कजरारे दिग्मण्डल प्राची भी ओझल

खण्डहर – सी शोहरत अर्सा के
क्या कदर क्यों कोहरिल से ?
निष्ठुर दीपक भी नूर मञ्ज़िल नहीं
यह पौन धरा के भार भी क्यों ?

प्रलय नियरे किन्तु अर्जुन नहीं
कृष्ण शङ्खनाद सार कौन समझें ?
चक्रव्यूह समर के , क्यों अभिमन्यु ?
यह प्रतिद्वन्द्वी प्रतिक्षण का क्या निस्तेज ?

18. प्रथम जागृत थी

काली छायी टूट पड़ी नभमण्डल काया में
ललकार नही , जयकार नहीं वों ऊर्ध्वङ्ग तस्वीर
चन्द्रहास को न पूछ उसमें भी शङ्खनाद नहीं
चेतना की लहर किसका पङ्क्ति की आवाज ?

पिञ्जरबद्ध विहग आँगन के शप्त शय्या प्रतीर
कल सहर भी लौट चला विरक्त तिमिर सर में
तरुवर छाँह कराह के अशक्त निहत निर्वाद
निवृति ईप्सा अकिञ्चन भी नहीं आयत्ति गात

क्रान्ति व्यूह की प्रथम जाग्रत उबाल मिट्टी तन में
यह शहादत मंगल की बगावत बारूद चिङ्गार
रणभेरी यह रण थी दीन वनिता उत्पीड़न के भव
कमान सर से चूक पर रक्तरञ्जित कुञ्चित धरा

आमद यती प्रस्फुटित प्रभा पुष्प पुञ्ज कलित रण के
उपेन्द्र धार प्रवाह हृदय चित्त में विलीन मयूख
स्वप्निल स्वच्छन्द स्पन्दन से पन्थ कबसे नव्य अरुण के
इतिवृत्त पन्नग – सी त्याग शिशिर अम्बुद में मीन वसन्त

चिर विछोह तरङ्गित उर में स्वत्व वतन व्योम असीम
यह उपवन अभेद नीहार अजेय विस्तीर्ण भव केतन ऊर्ध्वङ्ग
बहुरि द्विज उद्भिज हूँ चिरायँध से स्वः सृष्टा गुर के
आर्द्र चितवन अमन के स्वच्छन्द विहग पङ्ख उड़ान के चला

19. प्रतिबिम्ब

आईन में देखा जब तस्वीर
चाहा यथार्थता को प्रतिपल
छिपा लूँ किन्तु छिप न सका
टेढ़ी – मेढ़ी लकीर भी
दिख गया तकदीर के

कोहरिल कालिख पतझड़ के
झुर्रियाँ उग आएँ काले – काले
गर्वीली निग़ाहों को देख
मदहोश बन बैठा उन्मादों के

उलझनें भी आयी चुभ पड़ी तत्क्षण
न जाने क्या कुढ़न क्यों कलङ्कित ?
तिमिर में भी क्या कभी पुष्प खिला ?
अश्रु भी चक्षु में नहीं कबसे

धुएँ अंधेरी के जरा – सी उँड़ेल
चिन्मय भी प्रचण्ड पथ – पथ के
अंतर देखूँ तो स्पर्धा से जलता हूँ
ऊपर देखूँ तो या भीतर के भव

तरङ्गित कर छायी उषा में खग
ध्रुवों पर अटल चिरता प्रतिबिम्ब
उत्तमता ऐब देख पिराती परिवेष्टित
मँडराती भवितव्यता भार पर हूँ अशक्त

बेला कहाँ वसन्त के झेलूँ भी कैसे ?
यह उजियाला लौट चला प्रतिची से
रश्मि की बाट क्यों देखूँ तब से ?
गूढ़ जीवन अमरता छू लूँ कहाँ से ?

तृषित धरा गगन गरल नील भी नीरस
नीले नभ में भोर तरणि कहाँ ओझिल ?
टूटता कलित तारों से बिछोह सन्ताप
क्रन्दन रस बिखर गया घनघोर में
अपरिचित झिलमिल विभावरी तट के

20. क्यों मै अपरिचित ?

सागर चीर – चीर के नभ नतमस्तक
घेर – घेर रहा स्वप्निल दरवाजा के बुलन्दी
फौलादी बढ़ चला शिखर अमरता के
जो तपता आया तन – तन जिसके प्रचण्ड

बढ़ चला धूल भी वों अभी धूमिल
कलित है तल आया त्वरित कल से
असमञ्जस हूँ क्यों मै अपरिचित ?
लौट आऊँ ओट के दुल्हन नभ से

तरुवर छाँव के क्या एक तिनका सहारा ?
क्या उँड़ेल दूँ आहुती भी दूँ किसका ?
तड़पन में कराह रही कौन जाने मेरी राह ?
टूट के बिखरा कब वसन्त , कब पतझड़ भला ?

पङ्ख पङ्क्ति को तो हेर कौन रहा ?
सब तन्मय मोह – माया के जञ्जाल में
आज यहाँ अट्यालिका कल वो बाजार
हो चलें भव रुग्णनता के हाहाकार…

यह व्याथाएँ परिपूर्ण नहीं है अभी है बाकी
पूछ लो उसे जो बाँधती कफन पेट को
लूट – लूट साम्राज्य का क्या नेस्तानाबूद ?
मत करो और नग्न जिसे लिबास नहीं

21. हुँकार मेरी भव में

छाया कहाँ माँगू कब और कहाँ से ?
कौन पूछ रहा है किनको किन्तु अकिञ्चन ?
मिलता हर सुख जहाँ हुँकार मेरी भव में
स्वर शङ्खनाद हूँ मैं गुरुदेव के पुनीत चरणों में

गङ्गा की धार भी मिलती व यमुना का शृङ्गार
क्षितिज ओझिल किरणों से आती वो रश्मि प्रभा
प्रज्वलित हो उठे मस्तिष्क के भव सौन्दर्य में
हिल उठे दिव समीर धरा जहाँ होती विहग के नाद

पथ – पथ प्रशस्त करते जिनको तिनका
बिछाती तन – मन में ऊपर – ऊपर बढ़ते कदम
मत रोक उस प्रस्तर को तू कर दें किनारे स्वप्निल के
आवाह्न करूँ चरण वन्दन करूँ मैं गुरुवर का

यह आँगन स्वर झङ्कृत सार के दृग दोहे तस्वीर में
शागिर्द बनूँ समर्पण मेरी कब – कब के चिर दिवस
आदि न अंत हो विष दर्प काहिल कटु उपदंश
लौट चली मैं मृदङ्ग ताल स्वर स्पन्दन में कब से

निशां की जुन्हाई देखो तो हो रहें कैसे जैसे रवि
तम भी कहाँ विलीन में बिखेरती अपरिचित छाँव में
यह युगसञ्चय सभ्यता संस्कृति के धरोहर को
गूँथ – गूँथ के रचाती
और जहाँ होती शक्ति किसलय विनय ज्ञान के कल

22. सञ्चार जीवन की निशानी

सञ्चार जीवन की निशानी ,
विल्वर श्रैम की अनुभव साझेदारी ।
अपना अभिव्यक्ति अपना भरोसा ,
यहीं हैं आपना सोशल मीडिया ।

स्त्रोत – सन्देश – माध्यम – प्राप्तकर्ता ,
यहीं है सञ्चार प्रक्रिया जहाँ ।
देवर्षि नारद संवाद सेतु है ,
जहाँ महाभारत के ही संजय ।

अभिलेख – शिलालेख पुरातन के ,
सहवर्ती है अशोक और चंद्रगुप्त के ।
तमाशा – रागनी – साङ्ग – लातिनी के ,
नाट्यरूपों – कथावाचन शैली के ।

भावना – विचार का आदान – प्रदान ,
जहाँ मानव सभ्यता का विकास सञ्चार ।
लिपि से मुद्रण के सफर तक ,
एकता – सम्प्रदायिकता – मानवाधिकार का सार ।

अंतः वैयक्तिक और अंतर वैयक्तिक ही ,
राष्ट्र के मानस का निर्माण बनाती ।
ध्वनि तरङ्ग – प्रकाश तरङ्ग – वायु तरङ्ग ही ,
हैं सारे माध्यमों का समागम ।

पुण्डालिका से आलमआरा चलचित्र ,
गतिशील पारदर्शी जीवन निर्माण ।
संस्कृति व राष्ट्र निर्माण रेडियो अनुदान ,
जहाँ मिली विश्वयुद्ध सूचनाओं का सारक्ष ।

भाषा – लिपि – छपाई – प्रवक्ता से ,
सांस्कृतिक – मानसिकता तक़रीबन ।
अंकुर – असत्य – बहस – मुबाहिस ही ,
दुराचारिता – मानवाधिकार हनन का प्रतिबिम्बित ।

पत्रकारिता मिशन थी आजादी के मर्तबा ,
व्यवसाय मिशन है आजादी के पश्चात ।
पत्र – रेडियो – डाक – टेलीविजन – इण्टरनेट ,
यहीं है पत्रकारिता का सार ।

सङ्कलित – सम्पादित – पाठक समावेश ,
यहीं है जनसञ्चार का प्रिण्ट मीडिया ।
रिपोर्टिङ्ग और सम्पादन ही ,
हैं बौद्धिक और पत्रकारिता का कौशल ।

फेसबुक – ट्विटर – विकिपीडिया ,
जहाँ मिलती लोगों को अपनी रूपरेखा ।
जनसञ्चार का एक ही उसूल ,
सार्वजनिक हित – मूल्य – आचार संहिता ।

परिवारिक समाजिक रिश्तों की बुनियादी ,
जहाँ मिलता राष्ट्र निर्माण व सामाजिक उन्नयन ।
भारत का यह अटूट सपना है ,
धर्मनिरपेक्ष व लोकहितकारी राष्ट्र अपनाना है ।

23. सान्ध्य क्षितिज

पलट गयी करवटें जीवन के उस पन्नों के
इतिवृत्त भी किसका सार देखो कल के कर में ?
दर – दर में बिखरा मिलिन्द मधु के भार कहाँ ?
झख़ के तनु कहर छायी वहीं वारि के गेह में

अनिल – धुआँ , प्रवात – अनल वक्षस्थल को चिर रहा
भव छिछिल में तनती आशीविष के विष में
मेघ विलीन होती सिन्धु में क्या भला और का ?
अट्टालिका के चिरप्यास में करती क्षत – विक्षत परि का

जन – जन में दारुण खड्ग लें कौन दौड़ रहा हृदय प्लव ?
मिथ्या दोष चिता के विष धोएँ कहाँ कलङ्क ?
सिञ्चते शोणित कौतुक भरा किञ्चित भी नहीं तन के
क्षण – क्षण के दामिनी नहीं स्वप्न का भी क्या आसरा ?

यह अंकुर बूँद भी दबे तले विकल – विकल थल है
अश्रु फूटती किसका घूँट में चिर – चिर सृष्टि तप के ?
पतवार धार के त्वरित प्रच्छन्न कहाँ द्युति हुँकार ?
स्वयम्भू भी घूँघट दें स्वत्व को करते निरन्तर मलिन

महासमर रणधीर अंगार के रग – रग के दिग्गज डोले
रण है चक्रव्यूह अभिमन्यु के भीतर – भीतर के समर
विशिख भी कहाँ लौटी कमान से जो तस्वीर प्रस्तर में ?
कैवल्य के पन्थ में भव क्यों नहीं दृग धोएँ सान्ध्य क्षितिज के ?

24. क्यों लौट रहें नभ ?

मधुर – मधुर विकल के तन कौन कहें तन्हा इसे ?
बेला अंतिम कहाँ चली पतवार भी नहीं तम के शून्य भव ?
कल के पन्थ – पन्थ में कौन विकल क्यों लौट रहें नभ ?
इस असीम के स्वप्न में खोजूँ किसे जो बीती स्वप्न के कल ?

यह सर्ग को कौन सुनाएँ कोई शप्त तो कोई हो चलें शव ?
इस सीकड़ के कौन सतत शिखर – शिखर के चलें खग ?
मनु नहीं मनुजात के हो चले कब के म़नुजाद
विभूति – विरद के भुवन में रत यह विभात सबल सर के स्वर

शम शय्या कहाँ बिछी मुफ़लिस शर स्व कहाँ कलित ?
यहाँ साँस भी टिकी स्वेद सहर के शहर सम्बल सूर के कौन लय ?
यह सुधि भी कौन लीन्ही सदेह वरन् शकट क्यों विपन्न विपिन के ?
भोर – विभोर के अर्क है किस मत्त में मद के किस प्रतीर ?

इस लक्ष में कौन छिपा क्या कौन्तेय या विभीत के रङ्क ?
समर – समर में क्यों रण खोज रहा है कौन विकल के तन ?
अर्जुन नहीं अभिमन्यु नहीं यह दुर्योधन – दुशासन के दंश
शपथ – शपथ में क्या असित , हुआ क्यों द्युत क्रीड़ा के चल ?

यह किसका विकराल उर्ध्वङ्ग होती अचित इन्दु या सूर के ?
अज्ञ – विज्ञ , अभेद – अभेद्य , आसत्ति आसक्ति ईश के उत्पल नयन
इति के कूल या ईति अनुघत अशक्त असक्त के उन्मुख अतल
कली कुसुम में विहग के कूजन नहीं यह ईड़ा है किसकी ?

3

1. मेसोपोटामिया सभ्यता

दजला और फरात नदियाँ माँझ
मेसोपोटामिया सभ्यता का इराक
अर्द्धुक सभ्य शिष्ट वृहत साहित्य
अंक खगोल विद्या का प्रसार

सुमेर अक्कद बेबीलोन असीरिया
सुमेरी अक्कदी अरामाइक भाषा
इमारत मूर्ति आभूषण कब्र औजार
मुद्राओं लिखित दस्तावेजों का सार

ओल्ड टेस्टामेण्ट बुक ऑफ जेनेसिस शिमार
पुरखा मेदिनी पन्थी प्राज्ञी यूरोप
उत्तरी सीरिया तुर्की भूमध्यसागरीय प्रदेश
उतनापिष्टिम जलप्लावन आज्ञप्ति

असतत भौगोलिक पूर्वोत्तर इराक
वृक्षाच्छादित गिरिपान्त हरीतिमा मैदान
निर्मल उत्स कान्तार सारङ्ग मेह
काश्त आगाह आजीविका निर्ज्वर साधन

शरत वृष्टि उत अरण्य तृण
परवरिश होती त्रिशोक बाशिन्दा
दजला मुआफिक संवहन विषघ्निका तिय
याम्या मरुखण्ड पुर लिपी प्रादुर्भाव

फरात दजला उर्वर रज लतीफ़
उदीची अंझाझारा प्लावन आप्लावन
ग्राम्य उत्कर्ष शहर उद्भव पराकाष्ठा
समवर्ती हड़प्पा चीन मिस्र सभ्यता संयोग

कांस्य लोह युगेन पुरातात्त्विक काल
सिकन्दर वाया उच्छित्ति सभ्यता
रालिंसन बिहिस्तून आत्त तफ़्तीश
शिलालेख से अध्येय ओहार अध्याहार

आदर्श एकल विवाह वनिता अहमियत
आस्तिक शिक्षित अधिवासी विशिष्टता
कीलाकार लिपिक संहिताबद्ध धारा
वार्का शीर्ष आमदरफ़्त एकछत्र साया

2. भयभीत हूँ

नव्य जीवन सौगात धारा पैग़ाम
पुलिकित निराकार मदोन्मत शृङ्गार
तप उठी उस रोधन हृदय ठाँव
कल्पित कर रही मौन मयूख नाद

निर्झर चक्षु नीर अभिशप्त पड़ा
करुणामयी कलङ्क हुताशन धरा
प्रलय वसन्त में ओझल इम्तिहान
फिर क्यों धार नव्य वसन्त शृङ्गार ?

एक दीपक समाधि में निभृत भरा
प्रज्वलित पङ्क्ति भग्नावशेष ईंढ
स्वयं विसर्जित तअम्मुक़ क़ियाम
अंकुर लहर मर्त्य – सा कलश

उच्छ्वसित – सी चिर अखण्ड स्नेह
स्मृति विलीन थी उस प्रकाश पुञ्ज
गर्वाग्नि धायँ – धायँ प्रज्वलित
फूट पड़ी उज्ज्वल राग रति रूप

पथ – पथ मँझधार पतझड़ सुरभि
भयभीत हूँ अनात्म भरी धृति – सी
इस कँटीली अबाध नश्वर प्रतीत – सी
मानो दे रहा सृष्टि त्रास टङ्कार

3. लालिमा

नभ में सूरज की लालिमा
इन्द्रधनुष सप्तरङ्ग की छाया
भोर सारङ्ग साँझ दीवानी
कर रही पुष्प मन मस्तानी

स्वर – नाद प्रस्फुटित होती भव
कर नतशिर तरुवर त्रिदिव
करती अनाविल धरा अगवानी
होती महफ़िल इब्तिदा मदन

समीर अरसौहाँ मन्द – मन्द ऊर्मी
क्षितिज रश्मि उत्कण्ठित मानिन्द
पारावार चन्द्रज्योत्स्ना रोह उमङ्ग
तअज्जुब मदमाती कजरारे धरा

स्फुलिङ्ग रवानियाँ रूपहली आभा
भाव – विभोर भव्य भवसागर
पुष्पवटुक पूर्णाहुति प्रीति – राग
विच्छिन्न विभूति व्योम – विहार

स्वच्छन्द समरस सुरसरि शहज़ोर
शृङ्गार शौर्य सुनाती विरुदावली दास्ताँ
रोमाञ्च भर उठती रोमावलि काया
मृग – मरीचिका मधुकर मतवाला

4. झूम – झूम

बादल दादा आओ न
मुझको एक गीत सुनाओ न
झूम – झूम घूम – घूम कर
पानी का बहार लाओ न

किसानों पर पड़ी समस्या
उसका भी पयाम लाओ न
झूम – झूम घूम – घूम कर
खेतों में पानी बरसाओं न

नदियाँ तालाब सूख रहे
पानी का अकाल बढ़ चले
जीव – जन्तु व पेड़ – पौधें
पानी के लिए सब तरस रहें

फिर बादल दादा लगाई टङ्कार
बिजली ऊपर से कौन्ध पड़ी
काली नीली ऊपर आसमान
पानी के बरस रहे बहार

मेण्ढ़क टर – टर कर रहें
मछली ख़ुशी से नाच रहें
सरसों की झूमती हरियाली
कितनी सुन्दर कितनी भाती !

बच्चें जब सुनें टङ्कार
नाव – छाता ले दौड़ लगाई
झूम – झूम घूम – घूम कर
बच्चें खुशी से नाच उठें

चिड़ियाँ चूं – चूं करती जाती
आपस में कभी लड़ती जाती
कितने सुन्दर कितने प्यारी !
सबको कितने सुन्दर भाती !

चिड़ियाँ घर को लौट गयें
किसान खेतों की ओर बढ़ चलें
सूरज भी आए वों भी गये
पानी अभी बरस – बरस रहे नभ

5. मैं मीत हूँ

इस माटी की कुर्बानी हुँकार कर रही
मानवता तन्मयता का रसगान कर रही
मैं दीवाना बन चला इस रोधन में
मैं कर्तव्यों का भार लिए इस तोरण में

प्रफुल्लित हो रहा लहराती कुसुम
महिमामण्डित रही शैशव वितान कौसुम
मैं मीत हूँ , रग – रग में समा रहा
मध्वक कशिश नहीं , अन्वय अनुराग

विकल विह्वलता तन रही इस खल
तमाशबीनों बनकर रह गया बस अज्वाल
इस कसाव कहर बाजार में , मैं विरक्ति
वैभव प्रासाद मदिरालय निखिल अनुरक्त

इस ईप्सा लिप्त का कगारे नहीं
मैं जितेन्द्र वसन्त में अवसाद नहीं
चित्मय वाग्मी उदात्त आलोक अंगीकार
उद्धत ऊसर आतप रही अंतर्विकार

आलोल सरिता वाहित अहर्निश मुझमें
प्रमोद प्रगाढ़ निर्विकार नूर मञ्ज़िल में
तप्त उर गात त्रस्त त्राहि – त्राहि क्लेश
कौतूहल आत्मविस्मृत – सा क्यों हम अन्देश ?

6 . कहाँ ओझल ?

आमद पुनः , पुनः कहाँ ओझल
भव दीवा क्षीर तम नीर
पपीहे पिक रीछ भव सार
खोजूँ मैं विरह वेदना तीर

उद्विग्न हिय अरुक्ष कली
आण्विक शून्यता अतल रोध
तुङ्ग अब्दि इन्दु तत्व ओज
आसव प्लावित चित्त निवृति

अँगना अंगना रम्य जोन्ह
अशक्त असक्त अनल अनिल
दीर्घ उद्दीप्त कृति कीर्त्ति
अलि भोर विहग रति कूजन

मरीची मरीचि वल उडु ओज
करील करिल – सा उपरक्त उपरत
आसत्ति आसक्ति अभेद अजिर
विभोर यति यती पुष्कल – सा विरद

तरणि दामन तरणी प्रवाह
आधि आर्त अगम झल – सा
मृदु कल्पनातीत चरम चाव अलिक
अत्युग्र अश्म – सा हयात धार

7. पृथ्वी माँ

मेरी धड़कन स्कन्द पृथ्वी माँ
धरा तोयम् विश्व अम्बर
प्रकृति की हरीतिमा संसार
आप्यायन निरन्तर समाँ समाँ

अनापा अवनि परवरिश पाणि
विपिन वारि काश्त घड़ी आहार
वतीरा प्रोच्छून अखीन अग्रहार
हयात आवार प्राणी पाणी

सृष्टि प्राकट्य पयोधि मुत्तसिल
अनात्म से आसना अज़ीम धरा
मीन मण्डूक मुस्तनद असार
अध्वगामी निलय आदम उच्छशिल

प्रभा पुञ्ज शाक्वर मार्तण्ड
ज्योत्स्ना तम हेमपुष्प मसृण
मेह झञ्झावत अंतर्निवेश अमसृण
अह्न निशि घड़ी अचण्ड उच्चण्ड

सौन्दर्य विहार पारितन्त्र अंतर्क्रिया
अन्योन्याश्रित अवयव ऊर्जा प्रवाह
अनैसर्गिक अणु अगम अरवाह
होती खलक तारतम्य आविष्क्रया

8. बच्चे जा रहें हैं

क्या आफत आ पड़ी यहाँ ?
पौ फटी , बच्चे जा रहें हैं
कहाँ ? , काम करने
समस्या का बोझ इतना दबा
बच्चें भी लगे जाने काम

गरीबी की स्याही में विलीन
अर्थ सङ्कट का विषाद भरी
भोजन – भोजन के तरसते लोग
क्या उसकी गुनाह की ताज़ीर ?
या पाछिल कर्म की प्रायश्चित्त !

बञ्जारा दिलगीर बच्चों की टोली
एक परतल लिए भँगार में इस्लाह
आपा खोए मिलते नित इर्द – गिर्द
मुस्तक़बिल प्रभा दफ़्ना के
यतीम तफ़रीह शाकिर परवरिश

रङ्ग – बिरङ्गे इन्द्रधनुष के वितान
पुष्प कलित आबदार प्रस्त्रवण
मेघ दामिनी नूतन अश्रु बहार
नव कोम्पल उद्भव पुष्कर पिक नतशिर
फिर बच्चें क्यों हैं अभिशप्त लाञ्छन ?

विकराल प्रतिच्छाया क्षितिज इफ़रात
ज्वार कहर दहन आरसी प्रहार
मरणासन्न के शून्यता में समाधित
दोज़ख मधुशाला में इन्तिहा धरा
दुनिया आगाह कदाचित् आगाह

9. क्या लिखूँ मैं ?

अब क्या लिखूँ मैं ?
इस मिथ्यावादी धरा में
जग – जग को लूट रहा
हो रहा जहाँ विश्व कलङ्क

मनुज रहा दुर्जन की कगार
असभ्य से सभ्यता का विकास
फिर क्यों जा रहा है जहाँ ?
वापस वहीं समय धरा तक

क्या चाह है इस मानव का ?
जीवन जीना या न्योछावर कर देना
इस जीवन की आडम्बर में
अंगुश्तनुमा परिहास का मन्वन्तर

नापाक भर रही चित्त विक्षेपि
चारुमयी हरीतिमा की एहतियात
रुग्णता का व्याध माहुर – सी
आप्यान की ही क्यों रही प्रहाणि ?

अंगना – अंग सी मत्कुण अभञ्जन
व्यथा विप्लव प्लावन पार्ष्णि
हौरिबुल कुम्भिल झङ्कृत सार
उत्पीड़न भर देती अंतः करण में

10. महङ्गाई

जीवन जीना दुसाध्य हो रहा
इस महङ्गाई भरी दुनिया में
रोज – रोज कीमत की तादाद
विकल त्रास तृष्णा की क्यों मृगाद ?

दारुण विडम्बना की मण्डी महाशून्य
इच्छा निरोधस्तपः निर्मम घात
पसोपेश अबलता व्यतीपात व्यङ्गय
अकिञ्चित्कार स्पृहा मुख़ालिफ

चकाचौन्ध अनुपशान्त अकूत प्रपञ्च
आहत खिन्नता कुढ़न ग्रन्थन
ख़ुद्दारी दर्प अखिल दंश भरा
कुण्ठित ठाट णँता कृश अकारथ

उस्वाँस निनाद तड़ित् तञ्ज
सम्भार वाञ्छा ऐश्वर्य जगत
इंहिसार निज़ात निरोध तार्क्ष्य
आखोर औन्धा नृशंसता आडम्बर

देवारी – सी स्पर्द्धा किसबी बलात्
कार्पण्य उपालम्भ ख़ुद्दारी मगरूर
वज्रादपि कठोराणि सन्तप्त काँखते
अँधड़ कदर वाञ्छित निहारी

11. अंशु नूर

मारुत चली वक्त के तालीम
गिरि धरा वारिश अवलेप समर
घनघोर व्यवधान रही इस मसविदा
प्रत्यागमन करूँ या अग्रेषित रहूँ ?

इच्छा शक्ति पखान भग्न क्यों ?
आरजू पारावार विस्मृत कहाँ ?
मञ्जुल अनागत का अन्धियारा
प्रतिभास बलिण्डा अत्युग्र क्यों ?

रोहिताश्व धधक रही उद्विग्नता में
अविक्रान्त है मम प्रज्ञा तस्कीन
अवसान रहा प्राणान्त के कगारे
इम्तहान महासमर में मशक्कत मेरी

हौसला विहग में तरणि मराल
व्याघात ही अभ्यनुज्ञा चाक्षुष
चन्द्रहास बनूँ अलमास वज्र
उच्छेदन कर दूँ मातम प्रतिकार

प्राग्भार फणीश उत्ताल अभ्र
प्रवाहमान धार निस्सीम ब्रह्माण्ड
आत्मोद्भवा प्रज्वलित अंशु नूर
भव सिन्धु अधोभुवन निराकार

12. टङ्कार

अरुक्ष लहर चेतन जलधाम की
यह धार नहीं लहू क्रान्ति
अनलकण चट्टान की टङ्कार
अंगार हूँ रण वीर द्युति गर्दिश

तिमिर स्याही नखत मरीचि
परिव्रज्या इमकानात नफ़ीस पन्थी
अवेध्य अश्म शून्यता में भरी
भ्रान्ति मिथ्या विक्षेप सरसी

मृगया मुफ़लिस कार्ष्णि प्रहाणि
तलब अंकुश विषाद ज़मीर
तम्बीह आलिम नहीं पाण फ़कीर
मुस्तक़बिल खल तन्हा अलम

अश्मन्त क्लेश दुर्दैव दामन
इन्द्रारि अपारग इस्क़ात काल
कोलाहल दहर धरा रक्ताल्पता
हाहाकार रुग्णता का शीर्णौपाद

तारुण्य हरीतिमा जाग्रत खलक
मुहाफ़िज परिवेष्टित हो प्लावित
क्षुब्ध मुहुँ निरुद्विग्न का सिन्धु
अशनि – पात आतप तजहु कर

13. अदृश्य मैं

मृगाङ्क की कलित शबीह
पद्मबन्धु की राज्ञी या अभिसर
अंतर्भावना शून्यता में प्रभाव
ख़्वाबों के भवसागर , अदृश्य मैं

प्रादुर्भाव कर रहा चेतन हयात
रहनुमा बनकर रह गया अकेला
इस्तिक़बाल कर रही यामिनी तारक
जहाँ नव आगन्तुक का है अभिसार

विकल घात दृगम्ब के तीर
उदधि अवलम्ब झष के पीर
आर्त्तव नीरद दीप्ति नूपुर
शून्य क्षितिज दिव अंतः पुर

संसृति अचेत अवरति आसिद्ध मञ्जर
अंतर्ज्योति चैतन्य इतस्ततः आदि
क्षुण्ण – अक्षुण्ण प्रणव में अंतर्धान
उर्ध्व स्थिर अधोगति पराकाष्ठा

आण्विक द्वयणुक अवकलित मिलन
पुष्पपथ से प्रवर्द्धन जीवन वृत्ति
आतम से मिला नवल चेतन
नूतन प्राज्ञत्व कलित पुष्प शृङ्गार

14. द्युतिमा राग

लम्बे – लम्बे तरुवर धरे
प्रकृति मेरुदण्ड क्रान्ति है
निदाघ से सदा बचाती हमें
प्राणवायु का करती अभिदान

सारिका की नाद रुचिर
षुष्प कलित की परवाना है
शकुन्त सुकून की नीन्द लेती
मख़लूक की जहाँ रैन बसेरा है

पल्लव – मन्दल से आच्छादित
हरियाली ताज़्जुब तस्दीक जहाँ
अलँग – अलँग कान्तार अनुकृति
अवरज माँझ दीर्घ अनुहार

वृत्ति जिदगी का मनुहसर रहा
रफ़्ता – रफ़्ता पुरोगामी परवरिश
अभिषिक्त करती देवान्न मही
अम्बु दीप्ति वाति आलम्ब

ख़िजाँ शरद सदाबहार नाही
प्रस्फुटित होती नव्य माधव में
मुकुर अनादि द्युतिमा राग
अर्णव तीर अनुषङ्ग कलित धरा

15. भोर सारङ्ग

दूर से आती रश्मि आदित्य
प्रकाश पुञ्ज की धड़कन है
क्या खूबसूरती हमार गाँव है !
वहीं खुशबू की अलग नज़ीर !

हिलकोरे करती सरसों डाल
बयार के बहारों सङ्ग
मान्दगी यतीम तर्पित पीर
परिणति प्रारब्ध रञ्जिदा रही

विदग्ध भरी कृषिवल आमोद
बारहिं बारा आफ़त सहतेउँ तासु
जलप्रलय ऊसर असार तुषार धरा
विवशता रही बुभुक्षा सम्भार

पुन्नाग निर्घात अभ्रभेदी रहा
ऊर्ध्वमुखी दुरन्त ग्रामीय नेही
अक्षोभ रहा अस्तगत आच्छन्न
अनाविल अनासक्त छायामय

व्यामोह ज्योत्स्ना सौम्य निश्चलता
भोर सारङ्ग चारु नव्य चेतन
विहगम कलवर घनानन्द – सी उमङ्ग
द्यौ विदित होता जग संसार

16. सन्ताप भरी गौमाता

महतारी मेरी अभिरति गौमाता
उपनिषद् – वेदों के अनुयाता है
आर्यावर्त की मञ्जूल भवितव्यता
जहाँ सन्दानिनी अगाध्य अधिष्ठाता

परवरिश करती रुधिर गात्र से
अनुज्ञा सऋष्टि संसार विधाता
पञ्चगव्य सोम जीवनम् उदधि
वनिता गीर्वाण रिहायश जहाँ

आढयता अंतश्छद् छत्रछाया का
प्राणवायु अनन्तर प्रदायी अर्णोद
मनीषी सावर्णि अगौढ़ इन्द्रियार्थ
वेदविहित ऊर्मी ईशित्व उद्ग्राहित

धेनु ललकार की कोलाहल
रियाया की उपेक्षा का बहार है
भक्षक की विडम्बना का आप्यान
क्लेश भरी अंतर्धान दहशत है

अश्रुयस समागम की अधोगति
मानवीयता का परिचार्य कोताही
इशरत तिजारत का रङ्गरसिया है
हुँकार कर रही मन्दसानु सन्ताप

17. कबीर

निर्विकार ब्रह्म पराकाष्ठा
प्रीति मानिन्द कलेवर भीरू
कबीर माहात्म्य निर्वाण आस्मां
मार्गिक तुङ्ग अर्णव भव अपार

ज़कात उसूल नाही यथार्थ रही
अमाया परहित सर्वतोभाव
आडम्बर का माहुर व्याल
अधिक्षेप पिपासु अगण्य अश्मन्त

आरसी आगस अध्याहार नाही
वाम जगत अस्मिता जहल
इत्मीनान मृगाङ्क में नखत है
कर रहा इख़्तियार अर्दली धीर

शमा अंगार प्रस्फुटित नाही
प्रत्यागमन कर जा तमिस्त्रा में
ज्योति धवल समर का धार
पुनर्भाव अवतीर्ण मकर वारिधि

वियङ्ग अनुगामी महानिर्वाण कर
पामर यामिनी का शमशीर बन
ख़ालिक भव दिव अब्दि नफ़्स
शिति रश्मि सच्चिदानन्द ” कबीर ”

18. कच्ची पगडण्डी

कच्ची पगडण्डी के मुसाफ़िर
कहाँ चले व्यथा प्रबल किए ?
व्यथा की उलझनें क्यों तेरी ?
अंतर्भावना की उत्कण्ठा भरी

मैं उन्मुक्त गगन का परिन्दा
मुझे जग की क्या चित्या ?
कर रही परिमोष दुनिया जहाँ
मैं विरक्ति विकल व्योम रहा

इस पराभव अभिसार का
तृष्णा भरी ज़िन्दगानी है
नग कर रही है हाहाकार
विलाप करती धरती – समीर

काहिल लोलुप कन्दला महकमा
अपरिहार्यता बन रहा अभिशाप
मख़लूक अवधूत में समा रहा
आक्षिप्त शामत अतुन्द गात

मद्धिम – मद्धिम वितान क़हर रहा
अनैश्वर्य आबण्डर पराकाष्ठा है
द्वैषमान कल्मष शारुक पतन
अवक्षीण अनुगति ज़ियादती है

19. विश्व दर्शन हूँ

जो देश है वीर कुर्बानी की
विश्व दर्शन हूँ मैं वहाँ की
जिस देश में गङ्गा बहती है
खेत – खलियान हरी – भरी रहती है

सभी सम्प्रदायों की एकता यहाँ
करतें अखण्ड ज्योति महान तहाँ
भाषा की जननी संस्कृत यहाँ
महाकाव्यों वेदों का देते ज्ञान जहाँ

मोर्य गुप्त साम्राज्यों का वालिदा
यहाँ है अशोक युधिष्ठिर की धरा
मिलती है यहाँ भौगोलिक वैविध्य
तहज़ीब पञ्चमेल यहाँ पराविद्ध

सत्यमेव जयते उत्कर्ष नाद है
अक्षय दीप्ति सनातन धर्म अंतर्नाद
दत्तचित्त हूँ उन ज्योति शून्यता
अंतर्निवेश अंतःकरण है उन अरुनता

मुक्ता रसज्ञा कतिपय धरा
आलिङ्गन – पाश अखिल उघरारा
वृहत अभेद सद्वृत्ति वतीरा
अनीक प्रीति निस्बत चीरा

20. योगः कुरु कर्माणि

आरोग्यी वीरुधा मेरी विभूति
विहित कर उस दैहिक व्यायाम
सम्प्रचक्ष् है जहाँ योगमुद्रा इल्म
चैनों – अमन सौन्दर्य आयावर्त अपार

पद्म वज्र सिद्ध बक मत्स्या वक्र तुला
गोमुख मण्डुक शशाङ्क भद्र जानुशिर
उष्ट्र माञ्ज मयूरी सिंह कूर्म पादाङ्गुष्ठ
पादोन्तान मेरुदण्डासन तशरीफ़ कर

ताड़ धुवा कोण गरुड़ शोषसिन त्रिकोण
वातायंसन हस्त – पादाङ्गुष्ठ चन्द्रनमस्कार
चक्र उत्थान मेरुदण्ड – बक्का अष्टावक्र स्पर्श
अर्धचन्द्र पादप – पश्चिमोत्तानासन लम्बवत्

सर्वाङ्ग पवन – मुक्त नौक दीर्घ नौक शत्य
पूर्ण – सुप्त – वज्र मर्कट पादचक्र पादोक्त
कर्ण – पीड़ा बाल अनन्त सुप्त – मत्स्येन्द्र चक
सुप्त – मेरुदण्डासन कशेरुक दण्ड ओज

मकर धनुर भुजङ्ग शलभ खगा नाभि
आकर्ण – धनुरासन साष्टाङ्ग – नमस्कार
विपरीत – मेरुदण्ड विपरीत – पवनमुक्तासन शिथिला
उदरासन प्रवाहिता परिपाटी तन्दुरुस्त

सूर्य – नमस्कार अश्व – सञ्चालन व्यघ्रा भुजपीड़ा
वृश्चिक शीर्षासन समग्र इन्दियाग्राह्यता सार
वेदविहीत अनुसरण मज़हब निरन्तर अमूर्त
चरितार्थ दत्तचित्तता योगः कर्मसु कौशलम्

अष्टाङ्ग योग यम नियम आसन प्राणायाम
प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधि समागम है
महर्षि पतञ्जलि प्राज्ञता तत्त्व प्रविधि के
लययोग व राजयोग के कीर्ति सिद्धान्त जहाँ

शम्भूपति मन्वन्तर के अवस्तार प्रवक्ता
हड़प्पा सभ्यता की आविर्भूत अनुहरिया
काव्य – महाकाव्य कठोपनिषद सम्प्रदाय इशार्द
योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्मा परमात्मने

21. स्पन्दन उन्मद के

मेरा क्या ! इस शून्य भव जल के
आया बहुरि पुनः दीपक द्युति के चल…
आज इस , कल उस समर के कुन्तल
कहाँ छिपा मकरन्द हयात केतन के ?

प्रतिबिम्ब बिखेरती विभावरी स्वच्छन्द में
अरुण भी बढ़ चला पृषदश्व के पानी
लौटता फिर दिव से बनके तरङ्गित दामिनी
घनीभूत घन से बूँद – बूँद नीहार

चाह कहाँ होती विलीन , ओझिल भी कहाँ ?
यह चीर मही वारि तुङ्ग दीर्घ के भुजङ्ग
साध्वस भृकुटी मे छिपा अक़ीदा के नहीं
असित भी मौना कबसे कौन जानें , कैसे ?

संसृति के दरकार थी स्पन्दन उन्मद के
टूट के स्मित कलित झङ्कृत पुलक नींव
बिछाती कलेवर घेर रहा परभृत स्वर में
अघात धरा को प्रतिध्वनित कर दो धार को

अकिञ्चन आनन को न देख , शुचि उर को
बढ़ चला अभ्र पन्थ – पन्थ को बूँद – बूँद
उस शिखर तुङ्ग के उदान्त क्षितिज नभ के
कण्टकाकीर्ण का इस्तक़बाल मुझे यह कुदरत ईजाद

22. चिर – चिर होते दिवस

पूछा मै किसी से भव कहाँ तेरा ?
न जाने क्या भार लिए , कबसे ?
पीड़ा भी घूँट – घूँट के पी रहे थे
मै विस्मित – सा , क्या हुआ इसे ?

वहीं उन्मादो – सा मशक्कत कर को
इसरार लिए साश्रु का सबल नहीं
विभीत सीकड़ में सहर के प्रतीर
घनघोर शोणित के धरणी के भार

यह कमान खल के प्रचण्ड पर सर नहीं
क्यों लूटता लहू भी मुफ़लिस के ?
चिर – चिर होते दिवस के शिथिल
ज़र पङ्ख के भृत्य लगे दोज़ख के

वज्रवधिर से पूछो क्यों निहत निशा ?
ध्वनित भी नेति प्रहर क्या परिहत ?
भोर – विभोर भी तिमिर मे कबके मलिन
यह मिति भी क्या नहीं देती चिङ्गार ?

बाट जोह जोड़ रहा इन्तकाल देह के
साँस भी मिलती यहाँ घूँटन के गरल
ज़ईफ़ दरकार तरुवर अन्य करती वीरान
विप्लव बाँछती लहर ऊर्ध्वङ्ग मातम

23. महफ़िल भी जल उठी

चल दिया अंतिम बेला तट के यहाँ
महफ़िल भी जल उठी पन्नग व्याल में
अधम लहू दृग धो रही चिरते – चिरते चिर को
अवपात मै , चाल भी मेरे कच्छप के…

कारुण्य दामिनी प्रवात के रश्मि आँगन में नहीं
खोजता नभ पे वों भी मद में पड़ा
क्षितिज प्राची से लौटी खग से जाकर पूछो ?
क्या उसे भी मिली नव्य कलित नयन राग ?

उपवन भी नतशिर करती सरहद हुँकारों के
किन्तु मजहब ख़ुद में कौन्धती अपनी क्रान्ति से
इन्धुर भी कहाँ जाती , कबसे इस ओक या उस ओक
क्या केतु भी चला औरों के ऊर्ध्वङ्ग शान – सौगन्ध के ?

किञ्चित प्रत्यञ्चा चढ़ा दो स्वयंवर सीता के
परशुराम ताण्डव प्रचण्ड निर्मल कर दो संसार
अविरत नहीं यदा – कदा भी नहीं आती विभाकर अनीक
यह द्युति भी छिपा प्रसून क्लेश प्रखर के

किङ्कर , अज्ञ , वामा आनन दोज़ख के
अभिशप्त है कौतुक – सी म्यान में कृपण नहीं
त्रास में सतत पला सिन्धु भी निर्मल नहीं जिसके
कुम्भीपाक में मै भी समाँ निर्झर – सी धार

Language: Hindi
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स्वप्न विवेचना -ज्योतिषीय शोध लेख
स्वप्न विवेचना -ज्योतिषीय शोध लेख
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
किसका चौकीदार?
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Shekhar Chandra Mitra
तुम्हारा घर से चला जाना
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Dheerja Sharma
💐💐कुण्डलिया निवेदन💐💐
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भवानी सिंह धानका 'भूधर'
संतोष धन
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Sanjay ' शून्य'
मोमबत्ती जब है जलती
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Buddha Prakash
नजरिया रिश्तों का
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विजय कुमार अग्रवाल
Life
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C.K. Soni
गीत।। रूमाल
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Shiva Awasthi
श्री राम का जीवन– गीत
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Abhishek Soni
आज की सौगात जो बख्शी प्रभु ने है तुझे
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Saraswati Bajpai
बदलती फितरत
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Sûrëkhâ Rãthí
गरीबी……..
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Awadhesh Kumar Singh
चॉकलेट
चॉकलेट
हिमांशु बडोनी (दयानिधि)
International plastic bag free day
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Tushar Jagawat
🌷सारे सवालों का जवाब मिलता है 🌷
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Dr.Khedu Bharti
दीपोत्सव की हार्दिक बधाई एवं शुभ मंगलकामनाएं
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लोकेश शर्मा 'अवस्थी'
हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी
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Mukesh Kumar Sonkar
चंदा मामा सुनो ना मेरी बात 🙏
चंदा मामा सुनो ना मेरी बात 🙏
तारकेश्‍वर प्रसाद तरुण
माँ को अर्पित कुछ दोहे. . . .
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sushil sarna
लतिका
लतिका
DR ARUN KUMAR SHASTRI
सर्वंश दानी
सर्वंश दानी
Satish Srijan
■ताज़ा शोध■
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*Author प्रणय प्रभात*
परिणति
परिणति
Shyam Sundar Subramanian
बिन बोले सुन पाता कौन?
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AJAY AMITABH SUMAN
आज बहुत याद करता हूँ ।
आज बहुत याद करता हूँ ।
Nishant prakhar
जो बीत गया उसे जाने दो
जो बीत गया उसे जाने दो
अनूप अम्बर
रुचि पूर्ण कार्य
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लक्ष्मी सिंह
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