भूले-बिसरे पथिक
बाबूजी को तब से जान रहा हूँ, जब मैं कक्षा 3 या 4 का छात्र था ! वे हमारे यहाँ अक्सर आते थे, रात भी ठहरते थे, तब सिर्फ स्वजाति के विकास से संबंधित बातें ही होती, जिनमें मेरे दादाजी, उनके भाई नवीन दादा, कृष्णमोहन दादा, अयोध्या दादा, फणीभूषण दादा, चंद्रमोहन फूफा, मेरे चाचा इत्यादि रहते थे !
मैट्रिक आते-आते मैं बाबूजी के अर्जक विचारों से अनुप्राणित हुआ, तब शायद श्रद्धेय छेदी पंडित चाचा और श्री प्रणयी सर अध्यात्म के साथ-साथ इन विचारों से जुड़ रहे थे, इसी बीच देवेश जी और किशोर लेखनी के लंगोटिया यार बन गया…. एक दिन बाबूजी की उपस्थिति में ‘बाल दर्शन’ की प्रधान संपादिका श्रद्धेया मानवती आर्य्या से ‘अर्जक निवास’ पर मुलाकात, लंबी बातचीत भी हो पाई !
अर्जक निवास में बाबूजी के साथ रातें भी बिताई है और अंतिम यात्रा में भी साथ था…. यादें अमर रहेगी, बाबूजी ! आप तो उन यादों में रहेंगे ही।