भीड़
न जाने क्यों मुझे भीड़ से मुझे
दहशत होती है ,
लोगों के हुजूम मे खुद को शामिल करने से
नफ़रत होती है ,
क्यूँकि भीड़ की सोच, मेरी अपनी सोच से
अलग होती है ,
भीड़ सोच में अपनी सोच की कोई
हस्ती नही होती है ,
भेड़ चाल के पथ प्रदर्शकों और समर्थकों की भीड़ में कमी नहीं होती है ,
गलत या सही समझने की भीड़ में कोई जरूरत
नहीं होती होती है ,
जैसा और करें वैसा करने की भीड़ की
प्रेरणा होती है,
गलत को सही और सही को गलत सिद्ध करने की कोशिश होती है,
मानवता को ताक पर रखकर दानवता के सहारे स्वार्थ सिद्ध करने के नीयत होती है ,
भले मानुष का लिबास ओढ़े धूर्तो की
भीड़ में बहुतायत होती है,
इसलिए मैं अपने आपको भीड़ से
दूर ही रखता हूं ,
भीड़ की सोच के संक्रमण से अपनी सोच को
बचाए रखता हूं।