” भाषा की जटिलता “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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आज हम अपने सपनों को भूल मैथिली भाषा को लेकर महाभारत कर रहें हैं ! कैसे बोलना चाहिए ?…..,कैसे लिखना चाहिए ?…..और उचारणों के मापदंडों पर जमके टीका- टिप्णियाँ हो रही हैं !
भाषा ,…..भेष भूषा ,……उच्चारण में विभिन्नता स्थान- स्थान में
बदलता ही रहता है ! परमार्जित बंगला भाषा का विभिन्न रूप विभिन्न क्षेत्रों में मिलता है !
भोजपुरी का भी यही हाल है !….. आरा,…..छपरा से दूर निकल पड़ें तो भोजपुरी का स्वरुप ही बदल जाता है !…… भाषा निर्मल गंगा है जो स्थानीय सम्पूर्ण शब्दावली को अपने साथ बहा के ले जाती है !
हम बातें बड़ी -बड़ी करते हैं ! पर हमारी विचारधारा संकीर्ण क्यों होती जा रही है ?…… ६० के दशक मे भागलपुर विश्वविध्यालय के तत्वाधान मे संताल परगना महाविधालय दुमका मे ” मैथिली विभाग ” प्राचार्य सुरेन्द्र नाथ झा के अथक प्रयास से खुल पाया !……. डॉ विद्यानाथ झा ‘विदित ‘ एक मात्र विभाग अध्यक्ष थे !…… ७० के दशक मे मात्र तीन विधार्थियों को ही जुटा पाए !
मैथिली साहित्य की परीक्षा मे एक विद्यार्थी ने सारे प्रश्नों को उत्तर
‘अंगिका ‘ भाषा देवनागरी मे लिखा ! उदाहरण स्वरुप,….. ” हम्मे पढ़ने छियों विधापति एकटा महान कवि छलों “!………….
सारे मैथिली प्राध्यापकों की बैठक भागलपुर विश्वविध्यालय बुलाई गयी और तर्क- वितर्क के बाद उस विधार्थी को अच्छे अंकों से पास कर दिया गया !
….सही मे हम पहले ठीक थे ! अब हम भटकने लगे हैं ! यह मानसिकता कहीं हमारे सपने को चकनाचूर ना कर दे !!!!
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
साउंड हेल्थ क्लिनिक
डॉक्टर’स लेन
दुमका
झारखण्ड