भाइयों के बीच प्रेम, प्रतिस्पर्धा और औपचारिकताऐं
वास्तव में पैदा होते ही भाई, भाई का हिस्सेदार हो जाता है फिर चाहे माता-पिता का प्रेम हो या फिर घर की एक ईंट। इसी कारण भाइयों के बीच एक छुपी हुई प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा बचपन से ही प्रारंभ हो जाती है किंतु शादी के बाद यह छुपी हुई महाभारत रंगमंच पर आती है। अगर रिश्ते के आधार पर देखें तो भाइयों के बीच उतना प्रेम और सौहार्द नही होता जितना दोस्तों के बीच होता है जिसका मुख्य कारण है रिश्तों के बीच खुलेपन की कमी, प्रेम और सम्मान की औपचारिकता ज्यादा, क्योकि कर्तव्य और जिम्मेदारियां व्यवहार के खुलेपन को सीमित कर देती है।
वास्तव में भारतीय समाज ने हर रिश्ते को ऐसे गड़ा है कि उनमें खुलापन जेल जैसा है और कर्तव्य-जिम्मेदारी फांसी के फंदे की तरह।
जहाँ भाई-भाई, बाप-बेटों के रिश्ते की तरह ना रहकर दोस्तों की तरह रहते है वहाँ पर उनका रिश्ता ज्यादा दूरी तय करता है। क्योकि उनके रिश्ते में सामाजिक औपचारिकताओं की घुटन नही होती। बल्कि दोस्त एकदूसरे के प्रति सामाजिक रूप से ना तो जिम्मेदार होते और ना ही कर्तव्यों से बंधे रहते, इसके बाद भी वो स्वयं ही एक दूसरे के लिई जिम्मेदार भी हो जाते है और कर्तव्यपरायण भी क्योकि उन्होंने अपने रिश्ते के खुलेपन के द्वारा एकदूसरे को अंदर-बाहर से जाना है पहचाना है एवं एक दूसरे को एक दूसरे की गलतियों से अवगत भी कराया है और लड़ाई गाली गलौज कर पुनः उस रिश्ते को और भी मजबूत किया है।
अगर खून के रिश्ते के आधार पर देखें तो माता-पिता के बाद खून का रिश्ता अगर किसी से होता है तो वह केबल भाई-बहिन ही होते हैं या फिर अपनी खुद की संतान, जिनके बारे में हम वैज्ञानिक आधार पर भी कह सकते है कि हम एक हैं, जबकि इसमें पत्नी भी शामिल नही होती। यही कारण होता है कि भाइयों के बीच कितना भी खराब व्यवहार क्यों ना हो किंतु भाई के दर्द को भाई जितने अच्छे से भाई समझता है दोस्त नही समझ पाता।
फिर भी भाइयों का रिश्ता अक्सर बहुत ही कम मधुर देखा जाता है जिसमें हिस्सेदारी बहुत बड़ा कारण है जबकि मित्रों के बीच यह नही होती।