बेरुखी तुम्हारी
मेरी तासीर में तो बस , अहले वफ़ा ही थी ।
उसमें कहां ज़रा भी ,ज़फा की अदा ही थी ।
***
कुछ तो तुम्हें भी , मुगालता हुआ ज़रूर ।
जो इस तरह मुझसे ,अब तक ख़फ़ा ही थी ।
***
एतबार करो तुम भी ,ज़रा मेरे कलाम पर ।
मुसर्रत थीं तुम्ही और ,हमेशा सफ़ा ही थी ।
***
शायद ये मेरा नसीब था ,कि मैं रहूं असीफ़ ।
बेरुखी तुम्हारी फिर ,बिल्कुल बजा ही थी ।।
अशोक सोनी
भिलाई ।