बेचारे विधायक
व्यंग्य कविता
इन बेचारों के वश की बात नहीं,
न ही इतना जज्बा की
विद्रोह कर सके,
घोषणाएं तो होती है.
मगर कागजात पर,
हाथ कुछ नहीं.
सही कहे तो खाली.
एकदम जैसे हाथ ही कटे हों.
इनसे कैसी उम्मीद.
जो अनीति के उत्पाद हैं,
सुविधा इतनी,
खुद हाथ भी नहीं धोते,
जूते भी प्रशासनिक अधिकारी ???
हद होती है
चापलूसी और भक्ति ???
बस दो आदमी.
इतने बडे लोकतंत्र के…. मखौल में