” बुढ़ापा “
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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दर्पण को निहारा
तो चेहरों की झुर्रियां
दिखने लगी !
लाख कोशिशें
करके हम थक गए
पर गालों के गढ्ढे को
हम भर ना सके !
बालों को तो रंगीन
बनाने के नुस्खे
अनेक हैं !
दिल चाहे तो नए-
नए रंगों में रंग जाएँ !
दांत की कोई बात नहीं
डेनचर सुडौल बना देगा !
प्रेम के गीत को
गा गा के सुनाएँगे प्रीतम को !
पान की गील्लोरियाँ
चबाएंगे दिनभर !
यह सब तो दिखाने
की बातें हैं !
पर अंदर की बात
छुपाएंगे कैसे ?
हड्डियाँ जो कड़कड़ा रही हैं !
उठना -बैठना
और चलना सब दूभर हो चला !
यह राज भला
कोई कैसे जाने ?
हम लाख छुपालें
पर उम्र छुपती नहीं है !
समय के साथ -साथ
हमारी छाया रहती नहीं है !!
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल “