बचपना
देखते देखते हम जवां हो गये,
कब कहाँ उड़ा गया प्यारा सा बचपना।
बिना पैसों के सम्राट रहते थे हम,
सदा खुशियों में होते न था कोई गम।
आज लाखों हजारों की आवक मगर,
बचपना की अमीरी को छू न सका।
कोई लेखा न जोखा न खाता बही । रेजकारी के सिक्कों में धनवान थे।
छुट्टे पैसों में गिनती रईसों में थी।
अपनी बगिया में जाते थे गोवा तरह।
मेरे जैसे सभी दोस्त कंगाल थे,
एवन साइकिल में चलते इनोवा तरह।
आज बंगला है पद कार सब पास है,
बैंक बैलेंस रुतवा भी कुछ खास है।
न परिदों सी मस्ती भरी वो उड़न,
न ही सिक्कों में बचपन सी औकात है।
बिना न्योता के ही भोज खा आते थे, अब नहीं दावतें आज भाती मुझे।
हैं सुलभ अनगिनत खान पकवान पर,
चूल्हे की मोटी रोटी लुभाती मुझे।
मौज मस्ती चुरा ले गया बचपना,
सूना लगता पुराने लफंगों के बिन।
सुना सुना है कोना हृदय का कहीं,
याद आते बहुत आज बचपन के दिन।
– सतीश शर्मा ‘सृजन’