बिटिया की जन्मकथा / मुसाफ़िर बैठा
जिस साल मेरी नई नई नौकरी लगी थी
उसी साल नौकरी बाद
आई थी मेरे घरपहली मनचाही संतान भी
यानी दो दो खुशिया अमूमन इकट्ठे ही मेरे हाथ लगी थीं
तिस पर भी
इस कन्या जनम पर
कम दुखीमन नहीं था मैं
उसके इस दुनिया में कदम रखने के दिन
अपनी सरकारी नौकरी पर था मैं
घर से कोसों दूर
इस खुश आमद से बिलकुल बेगाना
मुझे इत्तिला करने की घरवालों ने
जरूरत भी महसूस न की थी
और पूरे माह भर बाद
घर जा पाया था मैं
घर पहुचने से ठीक पहले
बाट में ही
अपने को मेरा हमदर्द मान
एक पुत्रधनी सज्जन ने मुझे बताया था
कि महाजन का आना हुआ है तेरे घर
उसके स्वर में
सहानुभूति और चेताने के द्वैध् संकेत
सहज साफ अंकित थे
इध्रर मैं बाप बनने का संवाद मात्र पाकर
पुलकित हुआ जा रहा था
मैं तो बाल नामकरण पर
एक किताब भी खरीद लाया था
कि मेरे मन की मुराद पूरी हुई थी
चाहता था
कि यह अपूर्व हर्ष
उस खबरची मित्र से भी हमराज करू
पर चाहकर भी बांट नहीं पा रहा था
बेशक इसमें वह मेरा छद्म टटोलता
घर पहुचकर पत्नी से जाना
कि कैसी ललक होती है प्रसूतिका की
अपने साझे प्यार की सौगात को
उसके जनक के संग इकट्ठे ही
निहारने सहेजने की
कि दूसरा जन्म ही होता है औरत का
प्रसूति से उबरकर
और इस बेहद असहज अमोल पलों में
जातक के सहसर्जक को
खुद के पास ही पाने की
हर औरत की उत्कट चाह होती है
कि मेरा इन नाजुक पलों में
उसके पास न रहना….
कितना कुछ बीता था उसपर
जबकि
ऐन दूसरे प्रसव के दिनों
एकबार फिर जीवनसंगिनी से दूर रहकर
बदहवास लिख रहा हू मैं
यह अनगढ़ संगदिल कविता