बाहा पूजा
चैत्र मास की शुक्ल तृतीया को मनाई जाने वाली ‘सरहुल’ पर्व आदिवासी समाज में वृहद् पैमाने में उल्लास और जनजातीय नृत्य के साथ मनायी जाती है। झारखंड के अलग राज्य बनने के बाद बिहार में कटिहार, पूर्णिया, बांका और भागलपुर जिलों में खासकर संथाल, उराँव आदि जनजाति समुदाय के लोगों द्वारा यह त्यौहार न केवल उत्सव, अपितु सांस्कृतिक-गतिविधियों के साथ मनाया जाता है। सरहुल पर्व को ‘बाहा’ पूजा भी कहा जाता है।
यह एकतरह से प्रकृति की पूजा है। झारखंड में यह पूजा होती ही है, किन्तु बिहार के मनिहारी अनुमंडल में जमरा, नीमा, तेलडंगा, हरलाजोड़ी, ओलीपुर, सोहराडांगी, भेरियाही इत्यादि गाँवों में पुश्तैनी रूप से बसे संथाल और उराँव भाई एवं बहनों द्वारा पेड़-पौधों की टहनियों को एक जगह स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है, साथ ही पत्ते की छोटी-छोटी टहनियों को आदिवासी बहनों द्वारा गुँथी हुई बाल में खोंसकर तथा भाइयों द्वारा कमर में इन पत्तीयुक्त टहनियों को खोंसकर संताली भाषा में सामूहिक गान प्रस्तुत किए जाते हैं। इसप्रकार ‘सरहुल पर्व’ केवल उत्सव नहीं, अक्षुण्ण संस्कृति का नाम भी है।