*** “” बारिश की बूंदें , प्रकृति और मैं…..! “” ***
# उष्ण वाष्प से , मैं गगन छू जाऊँ ;
शीतलता से , मनुहार-तुषार बूंदें बन जाऊँ ।
बहती मंद-मंद शीतल हवाओं से मिल ,
मनभावन-शीतल समीर हो जाऊँ।
पहाड़ी झरनों पर ,
कहीं रुप मेरा विकराल है ;
कहीं-कहीं पर , रुप मेरा ,
जैसे शिमला-नैनीतल है ।
बूंद से बूंद मिले जो ,
मैं सागर बन जाऊँ ;
हुआ जो रूप विशाल ,
तो सागर से महासागर कहलाऊँ।
जब मिले स्नेह अपार ,
हुए मन-चंचल-तरंग बहार ;
तो फिर बुलर-डल झील बन जाऊँ।
मिले ” माँ ” सी ममता अगर ;
तब मैं ” गंगा ” की निर्मल-नीर बन जाऊँ।
और रहे संस्कृति कायम अगर ,
तब मैं , प्रकृति की तड़पन प्यास बुझाऊँ।
जग जाये भक्ति-भाव मन में अगर ,
तब मैं , अक्षुण्ण ” मान-सरोवर “बन जाऊँ।
# लेकिन जब से , तूने मुझे ( प्रकृति ) छेड़ा है ;
प्राकृतिक रचना की संरचना को तोड़ा है ।
काट जंगल , हवाओं के रुख मोड़ा है ;
चंदन-वन पर आविष्कार- क्रिया-कलापों से ,
CO2 ,SO2 जैसे अनावश्यक गैस छोड़ा है ।
बढ़ गई है तपन आज ,
धरती और गगन में ;
उजड़ गई मन-मोहक चमन ,
जब छिद्र हुई रक्षक सतह ” ओजोन ” में ।
कहीं पर ज्वालामुखी ,
और कहीं पर भूकंप ;
तेरे करतूतों के परिणाम है जो ,
आज मची धरातल में हड़कंप।
तेरे क्रिया-कर्मों से ,
ऋतु-चक्र बदल गया है ;
” कहीं ज्वालामुखी-सी जलन ”
” कहीं जल-जला पवन ”
तू अपनी विकास में ,
प्रकृति का विनाश कर गया है।
और अब क्या कहूँ….!
अपने आप ” मरघट ” की राह पकड़ गया है।
# जाने में हो या अनजाने में ,
तूने हिम-सागर को तोड़ गया है।
मुझे (प्रकृति) ,
बहुत ही तड़पन-सी हो रही है ;
क्योंकि मेरा ही लाल ( मानव) ,
अब घोर संकट में पड़ गया है।
चाह कर भी मैं ,
रूक नहीं पाती हूँ ,
है मिला जो आदेश , इंद्र जी का ;
जिसके आगे मैं झुक जाती हूँ।
मेरे मार्ग में जो आता है ,
कोई संवर जाता है ;
तो कोई बिखर जाता है।
या हो ,
जो केरल -मुंबई-उत्तराखण्ड ;
हो या जो ,
उड़ीसा-बिहार-पं.बंगाल-झरखण्ड।
बन गया है जो तू ,
इतना गंवार ,
क्या..? प्रकृति से नहीं है ,
तेरा कोई सरोकार।
हुई है जो पल-पल ,
प्रकृति से खिलवाड़ ;
उजड़ गया है अब ,
तेरा घर-संसार।
हिम-सागर को तूने जो ,
आग दिखाई है ;
सागर तल में जो ,
जल की सतह बढ़ाई ।
हुई है जो भूल ऐसे ,
तभी तो प्रकृति ने ;
अपनी विकराल रूप दिखाई है ।
# कहे जो मेरा मन आवारा ,
यारों न समझो बूंदों को ,
बारिश की फुहारा।
कलयुग में अपराध का ,
बढ़ा है इतना शौंक ;
सबको अपनी चाह लगी है ,
नहीं रहा अब किसी को ,
” प्रकृति ” सजाने का शौंक।
सबकी जिंदगी ,
आज बदल गई है ,
नवीनता में ,
कुछ इस तरह ढल गई है ;
प्रेम की जगह ,
नफ़रत फैल गई है।
हुई है जो ” प्रकृति ” संग छेड़-छाड़ ,
” पुरस्कार ” उसका , हमको पाना होगा।
लेकर सीख , इन आपदाओं से ;
अब हमें ” प्रकृति ” को सजाना होगा।
लेकर सीख , इन आपदाओं से ;
अब हमें प्रकृति को सजाना होगा।।
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ.ग.)