“बारिश और ग़रीब की झोपड़ी”
“ऑफिस से हुई छुट्टी,
बाइक पर भीगता मैं
बरसती तेज बारिश में ,
मैंने महसूस किया….
की वो सड़क किनारे , झोपड़ी का वासी ,
तकलीफ़जुदा है ;
जिसका घर रोंधती है बारिश ;
टपकती झोपड़ी उसकी ;
दीवारों की जगह घास फुस में रिसता पानी l
शायद ग़रीब के लिए
यही है बारिश की क़ीमत ,
डरता है वो , हाथ जोड़ता वो l
बस कर अब बारिश ,
बहते मेरे आँसू , नहीं दिखते तुझे ,
मेरी झोपड़ी के तिनके नहीं दिखते तुझे l
एक एक तिनके से मेरा बना यह आशियाना ,
यही मेरा घर और मेरा शामियाना l
तेरे दंभ के आगे मेरी ना चलनी,
मेरी झोपड़ी का हुआ कलेजा छलनी l
कल कल के बहता तेरा वेग ,
तोड़े मेरा शामियाना तेरा तेग़ l
अब बस भी कर, कोई दूसरी जगह बरस ,
बड़ी सोच , बड़ा दिल कर , कर मेरी झोपड़ी पर तरस l
यह देख़ द्रवित मेरा मन ,
और सोचता की….
ग़रीब की विनती नहीं सुनती बारिश ,
दुबे ख़्वाब , डूबी झोपड़ी और टूटी ग़रीब की ख़्वाहिश l
अमीर के लिये सुखद क्षणों का है पान ,
बेचारे ग़रीब की टूटती झोपड़ी और दुकान l
बस यह सब सोच और निहार,
मैं निकल पड़ा आगे ,
मेरे बस मैं बस लिखना है ,
बारिश और ग़रीब के भाँवों को शब्दों में पिरोना है l
नीरज कुमार सोनी
“जय श्री महाकाल”