बापू खैनी न खाइयो
बापू खैनी न खैय्यो
शाम के धंुधलके में एक झोपड़ी से मध्यम रोशनी आ रही है। बाहर बैठी कमलिया बर्तन घिस-घिस मांज रही है। नाली से होकर मैला गंदा पानी सड़क पर फैला हुआ है। एक जीर्ण-शीर्ण काया झोपडी के द्वार पर दृष्टिगत होती है, पर पुनः ओझल हो जाती है। यह मोहनवा है। गांव के गरीब मजदूरों में यह व्यक्ति इसी नाम से प्रसिद्व है। आज कल मोहनवा के चर्चे गांव-गांव में है, पता है ? क्यांेकि उसे कैंसर जैसे असाध्य रोग ने घेर रखा है । मोहनवा को मुॅह का कैंसर है, जो लाइलाज हो चुका है।
मोहनवा जब मजदूरी करके घर आता, उसकी प्यारी बेटी कमलिया उसके हाथ में खैनी की डिब्बी और चुनौटी थमा देती थी । मोहन बड़े प्यार से खैनी मुॅह में दबाता और अराम से खुष होकर बतियाता। कभी- कभी कमली को बापू पर बड़ा स्नेह आता तो वह हुक्का भी भरकर रख देती थी। और उसके घर आते ही सुलगा देती थी। मोहन हुक्के की गुड़गुड़ाहट में अपना सारा दुख भूल चैन की सांस लेता था। तथा कमली की सराहना भी करता था।
हाय कमली ! उसे क्या पता था कि उसका यह षगल उसके बापू के लिये जान लेवा साबित होगा। कमली ने कभी स्कूल का मॅुंह नही देखा था। उसका गरीब अनपढ़ बाप पढाई के महत्व से अनजान था। उसका तो बस भगवान ही मालिक था। दो जून की रोटी मिलती रहे, घर-ग्रहस्थी चलती रहे उसके सुखी जीवन का यही आधार था।
श्जीवन में किये गये कर्मो का फल इसी जीवन में भुगतना पड़ता है। जो जैसा बीज बोता है वह वैसी ही फसल काटता है।श् आखिर तम्बाकू खैनी, बीडी सिगरेट, हुक्का, चिलम, आदि निषेध ही किये गये हैै। क्योकि इनके सेवन से मुह का केैंसर व फेफडों का कैंसर होता है । यह भारतवर्ष ेमें बहुतायत से पाया जाता है।
अन्जान मंे ही सही गलत आदत का नतीजा हमेषा बुरा ही होता है। एक दिन मोहनवा के मुंह में छाले पड़ गये उसके बाद घाव में बदल गये। मुह से खून व मवाद बहने लगा, बदबू से संास लेना दूभर होने लगा। तब उस व्यक्ति ने अपनी जांच सरकारी चिकित्सालय में करायी। वहां कई प्रकार की जांचों के बाद पता चला कि मोहनवा को मुंह का कैसर हो चुका है, उसे मेडिकल काॅलेज रिफर कर दिया गया ।
मोहनवा अभी प्रौढ़वस्था की दहलीज भी लांघ न पाया था। उसकी एक फूल सी कुंवारी बेटी थी। जिसने घर-संसार बसाने के अपने सपने संजोये थे। उसकी मां भी अनपढ़ गंवार थी, रेजा मजदूरी कर घर का खर्च चलाती थी ।
मेडिकल काॅलेज में पहुचने के बाद उसका सम्पर्क बडे-बडे चिकित्सा वैज्ञानियों से हुआ। तब उसकी अक्ल की धुंध हटी। तब उसे ज्ञात हुआ कि तम्बाकू कितना जहरीला पदार्थ है । इसका असर न केवल हदय, फेफडों, धमनियों पर पड़ता है। बल्कि स्नायु तंत्र पर भी पड़ता है । असमय ही तंत्रिका तत्रं नष्ट हो जाता है एवं पक्षाघात भी हो सकता है।
मोहन का उपचार प्रारम्भ हुआ परन्तु मोहन को बचाया न जा सका। बीमारी के 6 महीने बाद ही मोहन कमलिया को अनाथ कर चल बसा था।
घर की वीरानी कमलिया को खाने को दौड़ती थी। रो-रो कर उसका बुरा हाल था । जब भी उसकी दृष्टि हुक्के ओर खैनी पर जाती उसका कलेजा फट पड़ता। उसने मोहन की मृत्यु के लिये अपने को जिम्मेदार मान लिया था। वह रोते-रोते कहती बापू जो खैनी न खाई होती , तो यह दिन देखने न पड़ते। तम्बाकू हमरे बापू के लिये जहर है, हमरा का मालूम न था।
जिन्दगी के वीरान चैराहे पर कमली और उसकी मां खडी थी। कहाॅ उसका गन्तव्य है ? कौन सी मंिजल तय करनी है ? उसको पता ही नही था। वह पुनः रेजा की जिन्दगी षुरू करे और अपनी बेटी कमला को भी रेजा बना दे। जो मात्र बारह वर्ष की थी । या उसे गांव की बालिका विद्याालय में दाखिल कर उसकी जिन्दगी को नया मायने दें। नये आयाम के सूरज के दर्षन करें।
उसने दूसरा रास्ता चुना बेटी को पढाने का निष्चय किया। अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिये उसने षिक्षा के प्रकाष को चुना था । उसकी झोपड़ी पुनः प्रकाष से जगमगा उठी थी।
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प्रवीण कुमार श्रीवास्तव