बादलों के पार
* गीतिका *
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खुश हुआ मन नील नभ का देख कर विस्तार।
चाह है बस उड़ चलूं अब बादलों के पार।
है हमारा खूबसूरत सा महकता साथ।
स्वप्न सुखमय जिंदगी के हो रहे साकार।
बात है कुछ मुस्कुराने की अधर पर खूब।
लूट लेती चैन मन का क्यों मगर हर बार।
है बहुत आनंदमय यह प्रेम की अनुभूति।
बन रही जब बांह फैलाए गले का हार।
हर कठिन विश्वास करना देख अपना भाग्य।
जब उजागर हो रहे मन प्रीति के उद्गार।
ग्रीष्म ऋतु की बारिशों में है अलग ही मौज।
भीगने का मन बना है देखकर बौछार।
भावनाओं पर लगाएं किस तरह से रोक।
फूल खिलने लग पड़े जब स्नेह के उपहार।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य, २३/०४/२०२२