बात
बात से बात बनती है ,
कभी-कभी बात बढ़ती ही जाती है,
बढ़ते- बढ़ते कभी-कभी बड़तंग बन जाती है,
बात कभी सुनी, कभी अनसुनी रह जाती है,
कभी समझ से परे ,एक अबूझ पहेली बन जाती है , कभी-कभी द्विअर्थी बनकर प्रस्तुत होती है,
कभी- कभी निरर्थक बनकर रह जाती है ,
कभी- कभी विवाद का कारण बनती है,
कभी समस्या का समाधान बन प्रस्तुत होती है ,
कभी हार का कारण बनतीं हैं,
कभी हारी हुई जंग भी जीत जाती हैं,
कभी रिश्तो को तोड़ती हैं ,
तो कभी टूटे रिश्तो को जोड़ देती है,
बात के महत्व जो समझ पाया ,
उसने ही अपना जीवन सार्थक पाया।