बहुमुखी प्रतिभा के धनी रमेश उपाध्याय जी नहीं रहे
दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला में कई बार रमेश उपाध्याय जी को मैंने देखा था। उनसे बुक स्टाल ‘कथन’ पर ही कभी-कभी नई किताबों को लेकर कुछ-कुछ बातचीत भी हुई, पर कभी उनसे खुलकर, लम्बी बातचीत का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका। हालाँकि वह दिल्ली के पश्चिम विहार में ही रहते थे। जहाँ से वे अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘कथन’ निकलते थे। ‘युग-परिबोध’ और ‘कथन’ नामक श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन के साथ-साथ रमेश जी ने ‘आज के सवाल’ नामक किताबों की लगभग 35 पुस्तकों का तथा ‘हिंदी विश्वज्ञान संहिता’ नामक विश्वकोश के प्रथम खंड का संपादन भी बड़ी कुशलता व निपुणता के साथ किया है। दुर्भाग्य देखिये कोरोनाकाल में पिछले कई दिन से महामारी से जंग लडता यह योद्धा भी हमें छोडकर अन्ततः चला गया। वे अस्सी वर्ष के थे।
प्रतिष्ठित साहित्यकार रमेश उपाध्याय जी जाना हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति है। क्या नहीं थे रमेश जी? भावुक कवि, कुशल कथाकार, प्रबुद्ध उपन्यासकार, सम्पूर्ण नाटककार, जिसने नुक्कड़-नाटक भी खूब रचे। विचारवान निबंधकार, समीक्षाकर्ता, संस्मरण, आत्मकथा, डायरी आदि समस्त गद्य-पद्य साहित्यिक विधाओं में निपूर्ण साहित्यकार तथा ‘कथन’ पत्रिका के संपादक, गहन अध्येता, विमर्शकार।
रमेश जी का जन्म 1 मार्च, 1942 ईस्वी. को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एटा जिले में बढ़ारी बैस नामक ग्राम में श्रीराम शर्मा जी के घर पर हुआ था। उनकी माता का नाम विद्यावती था। पूरा जीवन लेखन की तपस्या की और इसी प्रतिबद्धता को वह अंत तक दोहराते रहे। वे मूल रूप से कथाकार थे। जमी हुई झील (1969) में प्रकाशित उनका पहला कथा संग्रह था तो “कहीं जमीन नहीं” (2016) में उनका अंतिम कहानी संग्रह था। इस बीच दर्जनभर कहानी संग्रह उनकी कलम से निकले। इसके अलावा ‘चक्रबद्ध’ (1967), ‘दंडद्वीप’ (1970, पुनर्लिखित नवीन संस्करण 2009), ‘स्वप्नजीवी’ (1971), ‘हरे फूल की खुशबू’ (1991) उनके लाजवाब उपन्यास रहे।
सन् 1960 के पश्चात् उभरे या यूँ कहिये कि ‘सातवें दशक की हिंदी कहानी’ के प्रमुख कथाकार रमेश उपाध्याय ही थे। जिसे हिन्दी साहित्य में ‘समांतर कहानी’ व ‘जनवादी कहानी’ नामक आंदालनों के नामों से भी जाना जाता है। रमेश जी, जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य होने के अलावा केंद्रीय कार्यकारिणी व राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य भी रहे। कुल मिलके हम कह सकते हैं कि साहित्य रचना, आंदोलन, लेखन और संगठन के साथ-साथ रमेश जी ने अंग्रेजी, गुजराती और पंजाबी से महत्त्वपूर्ण कृतियों के अनुवाद भी किये हैं। आलोचना पर भी उनका कार्य बड़ा महत्वपूर्ण है, जो समय-समय पर हमें उनके साहित्यिक दृष्टिकोण से गहरे अवगत करता है। आलोचना पर उनकी ये किताबें चर्चित रही—’कम्युनिस्ट नैतिकता’ (1974), ‘हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार’ (1996), ‘आज का पूँजीवाद और उसका उत्तर-आधुनिकतावाद’ (1999), ‘कहानी की समाजशास्त्रीय समीक्षा’ (1999)। इसके अलावा नाटक, नुक्कड़ नाटक, निबंध व उनके द्वारा सम्पादित, अनुवादित पुस्तकें भी पाठकों के मध्य चर्चित रहीं। साहित्य में ‘भूमंडलीय यथार्थवाद’ की नयी अवधारणा को उत्पन्न करने एवं उसे पूर्णतः विकसित करने का श्रेय भी आदरणीय रमेश जी को प्राप्त था।
समय-समय पर रमेश जी को जो सम्मान व पुरस्कार प्राप्त हुए वे इस प्रकार हैं—’गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ (जो उन्हें ‘केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा हिंदी पत्रकारिता तथा रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए दिया था); हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा ‘किसी देश के किसी शहर में’ तथा ‘डॉक्यूड्रामा तथा अन्य कहानियाँ’ (तीनों कहानी संग्रह) पुरस्कृत हुए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘नदी के साथ’ के लिए मिला। वनमाली साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान उन्हें ‘कथन’ के संपादन के लिए मिला था।
यहाँ पाठकों को जानकारी के लिए बता दें कि अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से सम्मानित रमेश उपाध्याय जी एक दशक तक पत्रकार रहने के बाद तीन दशकों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर भी रहे हैं। 2004 में सेवानिवृत्त होने के उपरान्त वे पूर्णतः स्वतंत्र लेखन करते रहे। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे।