बहना चली वीरा के गाँव…
बहना चली वीरा के गाँव…
होंठों पर मुस्कान ले सोंधी
मृदु स्मृतियों के हार सँजोए
नेह-धार अजस्र भर नैनों में
रोते से हँस दे, हँसते रोए
सुन आहट सपने में जिसकी दौड़ पड़े जो नंगे पाँव
रब ही बचाए उस पगली को कोई काँटा चुभे न पाँव
रुचि के उसकी मिष्ठान्न बनाए
अक्षत, कुमकुम थाल सजाए
हरपल याद करे निज बचपन
प्रतिपल मंगल शगुन मनाए
नेह-ताग में गूँथ दुआएँ चली इक बहना वीरा के गाँव
घर-द्वार उसका रहे सलामत
दुश्मन भी न करे अदावट
माधुर्य – भाव रहे अपनों में
रिश्तों में हो न कोई बनावट
जुग-जुग जीए भाई प्यारा बनी रहे नित नेहिल छाँव
उमर लग जाए उसको मेरी
रब बुरी बला से उसे बचाए
मुझसे होकर लौटें सब गम
उस पर कोई आँच न आए
कुचक्र नियति के चल न पाएँ, उलट जाएँ सारे दाँव
झूमे खुशी में इतना के उसके टिकें न जमीं पर पाँव
बहना चली वीरा के गाँव…..
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“काव्यधारा” से