बस चलता गया मैं
न पैरों में जूते उदर भी था खाली,
मैं निकला अकेला थे हालात माली।
जहाँ से चला था विरानी डगर थी,
भले राह समतल कटीली मगर थी।
सभी जेब छूछी इरादा जवां था,
मैं खुद कारवां खुद का एक हमनवां था।
नहीं था पता दूर है कितनी जाना,
कहाँ होगी मंजिल हो कैसा ठिकाना।
कभी तो उगा कभी ढल सा गया मैं,
नहीं हारी हिम्मत बस चलता गया मैं।
न ख्वाहिश बनूँ कई अरबों का मालिक।
बस उतना ही हो जिससे बिसरे न खालिक।
अगन में तपा करके कुंदन बनाया,
सुबासन भरा शीतल चंदन बनाया।
कदम दर कदम पर बहुत है निहोरा,
रंगा तूने रचके नहीं रखा कोरा।
शुकर है शुकर है शुकर है तुम्हारा,
सब मालिक कृपा है नहीं कुछ हमारा।
मेहर आखिरी मेरे दाता ये करना।
चलूँ जब जगत से मिले तेरी शरना।
सतीश सृजन, लखनऊ