बनफूल जयंती 19 जुलाई
बांग्ला उपन्यासकार ‘बनफूल’ पर और भी विशेष जानते हैं… हिंदी न्यूज़ (7 जनवरी 2013) में ‘साहिबगंज’ के रेलवे हाईस्कूल से एन्ट्रेंस पासआउट बांग्ला उपन्यासकार ‘बनफूल’ के बारे में कुछ नई जानकारी इकट्ठी हुई है, जिनमें सत्य पक्ष लिए संशोधन लिए पाठकों व मित्रो के अवलोकनार्थ उद्धृत कर रहा हूँ… उनके जीवित रहते हिंदी फ़िल्म ‘बनफूल’ 1971 में आई थी, इस फिल्म की एक गीत– ‘मैं जहाँ चला जाऊं, बहार चली आए; महक जाए, राहों की धूल, मैं बनफूल…’ की तरह 60 से ज्यादा उपन्यासों सहित 600 से अधिक कहानियों के जरिए देश-विदेश में मनिहारी (तब पूर्णिया जिला) के बाद ‘साहिबगंज’ की भी सुरभि बिखेरनेवाले व पद्मभूषण से सम्मानित प्रख्यात बंगला साहित्यकार बनफूल उर्फ डाक्टर बलाई चन्द्र मुखर्जी की स्मृतियाँ आज साहिबगंज में गिने-चुने लोगों की स्मृति में रची-बसी है। जबकि उनके देहांत के कई वर्षो बाद भी नई दिल्ली स्थित हिंदी के पहले पॉकेट बुक्स ‘हिंद पाकेट बुक’ और शाहदरा, दिल्ली के ‘सुरेंद्र कुमार एण्ड सन्स प्रकाशन’ से प्रकाशित उनकी पुस्तकों की मांग बनी हुई है। साहिबगंज में बनफूल के जीवन से जुड़ी यादें अब यहाँ के लोगों के बीच धूमिल पड़ती जा रही है, जिसे बचाने का प्रयास भी नहीं हो रहा है, जबकि भारत की आजादी से पहले साहिबगंज के पास ही सकरीगली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के अचानक ठहरने की एक घटना से जुड़ी ‘बनफूल’ के रिपोर्ताज़ पर उनके अनुज व टॉलीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता अरविंद मुखर्जी द्वारा बनाई फिल्म ‘किछु खन’ (कुछ क्षण) को राष्ट्रपति द्वारा ‘स्वर्ण कमल’ व राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। साहिबगंज कॉलेज द्वारा बनफूल के सम्मान में इस कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य डा. शिवबालक राय के सम्पादकत्व में प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘बनफूल’ भी अब बंद हो चुकी है। ….तो साहिबगंज के रेलवे हाईस्कूल, जहाँ से बनफूल ने एन्ट्रेंस तक शिक्षा पाई और साहिबगंज कॉलेज रोड का ‘नीरा लॉज’ (कालांतर में होटल), जहाँ उनका आवास था, अब यह किसी की स्मृति में नहीं है, न ही इन सुखद स्मृतियों को सँजोने का कार्य ही हो रहे हैं, जबकि आज भी साहिबगंज पर केंन्द्रित उनकी कृतियों में शिकारी, निर्मोक, मनिहारी सहित रामू ठाकुर, कुमारसंभव, खोआघाट, जेठेर माय जैसी कथा -संसार ने देश-विदेश में बनफूल, मनिहारी और साहिबगंज की पहचान को प्रतिबद्ध की हुई है। ध्यातव्य है, बांग्ला साहित्य में कवीन्द्र रवींन्द्र, शरतचंद्र व बंकिमचंद्र के बाद आम -आदमी की पीड़ा को लेखनबद्ध करने में बनफूल का महत्वपूर्ण अवदान रहा है, तो इनकी कई रचनाओं में साहिबगंज की सामाजिक, मार्मिकता अथवा राजनीतिक क्षणों का चित्रण प्रस्तुत किया है। इस संबंध में शहर के बंगाली टोला में रहने वाले बनफूल के एक वयोवृद्ध रिश्तेदार तरूण कुमार चटर्जी बताते हैं कि उनका जन्म तो मनिहारी में हुआ था। वे साहिबगंज तो पढ़ने आए थे । रेलवे हाईस्कूल में पढ़ने के दौरान शिक्षक बोटू बाबू ने इनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचाना था और लिखने के लिए प्रेरित किया था। फलस्वरूप छात्र जीवन में ही स्कूल से निकलने वाली हस्तलिखित पत्रिका के वे संपादक बन चुके थे। हायर सेकेंड्री व आई एस सी की पढ़ाई हजारीबाग से पूर्ण की थी । उनका साहित्यिक अनुराग वहाँ से शुरू होकर भागलपुर में पैथोलोजिस्ट बन आदमपुर चौक पर क्लिनिक संचालन के साथ -साथ साहित्य में फर्राटा भर लिये और पूर्णरूपेण साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ गए, लेकिन डाक्टरी में बनफूल का मन न लगा और भागलपुर छोड़ बांग्ला साहित्य की सेवार्थ कोलकाता पहुंच गए। बावजूद उनके साहिबगंज से जुड़ाव अंततः रहा और साहिबगंज कालेज के पूर्व प्राचार्य शिवबालक राय के कार्यावधि में वे ‘बंग साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता करने जरूर आ जाते थे । बनफूल के साहिबगंज से गहरे लगाव से संबंधित एक घटना के संबंध में शहर के वयोवृद्ध अधिवक्ता ठाकुर राजेन्द्र सिंह चौहान कहते हैं– “बनफूल जब भी साहिबगंज आते थे, अपने स्कूल जीवन के निवास स्थल ‘नीरा लॉज’ में ही ठहरते थे। साहित्यकार के साथ वे बड़े प्रसिद्ध चिकित्सक तो थे ही, तभी तो दूरदराज के लोग उनके पास इलाज कराने भागलपुर अवश्य पहुंचते थे। साहिबगंज के प्रति गहरा लगाव रखनेवाले व देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान रखनेवाले लेखक व चिकित्सक बनफूल अब साहिबगंज में गिने-चुने लोगों और किताबों तक सिमट कर रह गए हैं !” गंगा, कोशी और महानंदा के त्रिवेणी संगम पर बस मनिहारी की धरती हर दौर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाई है। भास्कर न्यूज (9 फरवरी 2019) ने बनफूल के बारे में लिखा है कि वे बांग्ला साहित्य जगत में स्थापित नाम थे । उन्होंने 1935 से आधिकारिक रूप से अपनी लेखन शुरुआत की थी । सन 1936 में जब उनकी पहली रचना ‘बैतरणी तीरे’ प्रकाशित हुई, तब से ही उन्हें प्रतिष्ठा मिलने लगी । इसके बाद उन्होंने सैकड़ों कहानियाँ लिखी, जिनमें किछु खोन, जाना, नवदिगंत, उर्मिला, रंगना और उनकी अंतिम कहानी ‘हरिश्चंद्र’ (1979) काफी चर्चित रही थी। उनकी याद में भारत सरकार ने उनपर 3 रु. का डाक टिकट जारी करने के साथ-साथ 22 नवंबर 1999 को तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘हाटे बजारे’ के नाम पर कटिहार से सियालदह (कोलकाता) के बीच उनकी एक कृति के नाम पर ‘हाटेबजारे एक्सप्रेस’ ट्रेन चलवाई थी। अब यह ट्रेन उसी नाम से सहरसा- सियालदह (कोलकाता) वाया कटिहार होकर चलती है।