बदलती दुनिया
हर शख्स हो रहा है
बईमान क्यूं यहां,
फितरत बदल रहा है
इंसान क्यूं यहां।
बच गए जो कुछ कही पर घर पुराने से,
बस ईटो के रह गए है वो मकान क्यूं यहां।
जा चुकी है आज रंगत इन रंगीन दीवारों की,
खंडहर बन चुके है
ये आलीशान क्यूं यहां।
घरौंदा रिश्तों का जो सजाया था किसी ने,
कैसे टूटने लगा है
सख्त समान क्यूं यहां।
ढूंढ रहे थे कल तक खुशियां पैसों में कही,
रह गए कितने अधूरे
अरमान क्यूं यहां।
बेच कर जमीर जिन्होंने अपना महल बनाया था,
बह गए बारिश में उसके
निशान क्यूं यहां।
@साहित्य गौरव