बचपन
डंगा डोली पकड़म पकड़ाई
तू भाग कर छिप जा मैं आई।
आओ कबड्डी खो खो खेलें
नदी पहाड़ के भी मजे ले लें।
पोसंपा भई पोसंपा
डाकिए ने क्या किया।
सौ रुपए की घड़ी चुराई
अब तो जेल में जाना पड़ेगा।
ऐसा कौन सा बच्चा जिसने
“विष अमृत” न खेला होगा।
लूडो और कैरम की हारजीत
का नहीं किया झमेला होगा।
धूल धुसरित रहते दिनभर
किसने रेत में हवेली न बनाई।
बारिश में न कौन नहाता
किसने काग़ज़ की नाव न तैराई।
वह बचपन प्यारा सा बचपन
वे मासूम नटखट नादानियाँ।
अब ढूँढे से भी न हैं मिलतीं
दादी नानी की वो कहानियाँ।
आज का बचपन सिकुड़ गया
होमवर्क टीवी सेलफोनों में।
आज का बच्चा सिमट गया
बस घर के कुछ कोनों में।
यही हैं उसके मित्र व साथी
इनसे ही उसकी जान पहचान।
है शेष जग से अलग-थलग वह
बाकी दुनिया से वह अंजान।
बचपन को यदि इसी तरह
हम कुंठित करके मारेंगे।
तो क्या हम नौनिहालों के
भावी संसार को संवारेंगे?
लौटा दो इन्हें इनका बचपन
इनकी मासूम सी किलकारी।
जोड़ दो इनको फिर माटी से
खिलने दो यह नव फुलवारी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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