फूल की पंखुड़ियाँ अब मुरझाने लगी है
फूल की पंखुड़ियाँ अब मुरझाने लगी है
न जाने कौन-सी आग झुलसाने लगी है
सताने लगी जाने मन की बात अब कौन
मन-छोड़ भँवरे पुरातन अब आग लगी है।।
कौन बुझाये आग जो दिल में लगी है
मची खलबली क्यूं आग दिल-लगी है
ये कौन जाने मौन- मंजर कौन-सा हो
ये नहीं दिल्लगी अब दिल की लगी है।।
छुपाया है ख़ंजर जगह के कौन-सी अब
क़त्ल करदे किसका कौनसी जगह अब
अब मन की जाने, विश्वास करें किसका
रब जाने राहे मंजिल करें कौन छल अब ।।
हाथ ना आयेगा तेरे कुछ चाहे तूं इनको सबल कर
निर्मल ना ये मन, करते ये छल-छंद, ना सबल कर
अबला-घर उजाड़े ये पर घर, झगड़ो की जड़-जन
इनके सहारे बनो या किनारे किसी का तूं भला कर ।।
आग बुझायेगा कब तक दूसरों की जन
खुद- खुशी लगायेंगे आग तेरे परिजन
दो हाथ दूरी बनायेंगे परिजन तब सब
ख़ुदहाथ लगायेंगे आग जल जाये जन।।
छल करता है मानव मानव संग चल चल अब चल
ये राहे हैं राजनीति यहां चलता है छल-बल तूं चल
घरौंदा बनाते हैं हम ये रौंदते चलते हैं सब घर-बल
‘मधुप’ अब छोड़ दे साथ इनका तूं अपने घर चल ।।
मधुप ‘बैरागी’