फितरत
हरे – कँटीले पौधों में,
नये – निराले रूपों में,
बारिशों की रिमझिम में,
पतझड़ की तेज धूपों बीच,
ओस की नाजुक बूँदों सँग।
रेतीली – कंकरीली मिट्टी,
कहीं, यूँहीं कीचड़ में,
खिल जाता मैं बन कमल,
पनप जाता काँटों में,
बन कर खूबसूरत गुलाब।
फूल हूँ मैं जनाब,
महकना फितरत है मेरी,
खुशबू बनावटी रखूँ,
ऐसी उम्मीद मुझसे,
तौहीन है मेरी।
रचनाकार ~ कंचन खन्ना,
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक ~ २०/०९/२०२०.