फागुन महराज, फागुन महराज, अब के गए कब अइहा: लोक छत्तीसगढ़ी कविता
कलकुत के दिन गइस रे संगी,
जाड़ के दिन ह पहागे!!
धान-पान सब घर म आगे,
खेत कोठार सकलागे!!
होके छुछिन्दहा घाम उवत हे,
थोर थोर कहले लागिस!!
मोटहा कथरी जमो धोवागे,
अगहन पूष हर भागिस!!
माघ महिना लगते देखा,
आमा रुमझुम फूलगे!!
टेशू अइसन लागत जइसे,
बन म आगी सुलगे!!
जुड़ जुड़ चलय पुरवाई,
कभू बड़ोरा उड़ोवै!!
पुर इन पाना संग कमल,
अउ भौंरा घलौ झुलोवै!!
लाली, गुलाली रंग मगाएन,
नौ मन केशर घोरे!!
चांउर के हे गुरहा अरसा,
देहरौरी रस बोरे!!
डोकरा, छोकरा फगुवा गांवैं ,
बइठे लीम के छंइहा!!
फागुन महराज, फागुन महराज,
अब के गए कब अइहा!!
देख फगुनाही मन बइहा के,
जम्मो दुख ह भूलागे!!
तन के संग म मन ल रंगे बर,
अब फागुन हर आगे!!