पड़ कहीं जाए न महंगा यूँ झगड़ना भाई
अक़्ल अपनी भी रखो ठीक से वरना भाई
पड़ कहीं जाए न महंगा यूँ झगड़ना भाई
अपनी बातों से कभी तुम न मुकरना भाई
और मौसम की तरह तुम न बदलना भाई
वापसी कर के तो हासिल भी न मंज़िल होगी
राह जैसी भी चलो तुम न पलटना भाई
लोग चेहरे को बदल कर के तो साथी बनते
दोस्ती जिस से करो उसको परखना भाई
बात होकर के शूरू और कहां तक पहुंचे
बेवज़ह यूँ ही किसी से न झगड़ना भाई
पग उठाना है संभलकर के जवानी भी ये
जैसे चिकनी सी है मिट्टी न फिसलना भाई
अपनी-अपनी ही सभी फ़िक़्र किया करते हैं
ज़ीस्त की राह कठिन ख़ुद से संभलना भाई
प्यार से कह दो उसे एक दफ़अ समझाकर
कोई ग़लती भी करे तुम न भड़कना भाई
एक ‘आनन्द’ भला किसको बताये कब तक
इश्क़ दरिया है बड़ा पाँव न धरना भाई
-डॉ आनन्द किशोर