प्रेम की पेंगें बढ़ाती लड़की / मुसाफ़िर बैठा
उस दुकान पर वह
आती जाती है रोज ब रोज कई कई बार
तकरीबन पचीस घरों को लांघ
टंग गया कहीं है उसका मन
जबकि रास्ते में तीनेक दुकानों को
छोड़ आती है वह
अपने घर के पास ही
अपने मनप्रीत के घर की
गली से गुजरते वक्त
उसके लब गुनगुनाने लगते हैं यकायक
कोई गीत-फिल्मी या कि लोक
जो उसके आसपास आ
मंडराने की पक्की सूचना होती है
और मिलने का न्योता भी
लड़के के लिए
इंतजार आकुल लड़का निकल आता है
फौरन घर से बाहर और
सड़क की राह दौड़ जाती है
उसकी नई उगी निगाहें बरबस
और लख लेती हैं अपने अभीष्ट को
दुकान से लौटती नवचाल लड़की का नवोढ़ा दुपट्टा
बार बार सरकता संभलता है
सीने की उभार से लग
जैसे किसी की खातिर
नजदीक होती जाती है
लड़के से लड़की
और गली मानुष-सून पाने पर
दोनों की
कुछ मूक कुछ मुखसुख कुछ देहछू बातें
हो जाती हैं चट चुटकी में
किसी के द्वारा यह गुरु चोरी
देखे पकड़े जाने के भय बीच
और लड़की के लौटते डग बढ़ जाते हैं झट
बेमन ही अपने घर की ओर
देखें
दो युवा दिलों की
जगभीत बीच जारी यह नेहबंध
क्या महज कच्ची कसती देह का
अंखुआता आकर्षण है
या आगे बढ़ सच्ची लगी की ओर
पेंगें बढ़ते जाने का विहंसता दर्पण है ।
[रचना वर्ष सन 2008]