#प्राण ! तुम बिन
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■ यादों के झरोखे से ■
● यह गीत १५-४-१९७३ को लिखा गया था ●
★ #प्राण ! #तुम बिन . . . . . ! ★
प्राण ! तुम बिन कौन-सा
स्वप्न करूँ साकार मैं
नदिया हो बिन नीर जैसे
सुर-स्वरहीन हूँ सितार मैं . . . . .
मेघ-दल जब भी गगन में
घनघनाते आ गए
पवन झकोरे कुंज-गलियन में
सरसराते आ गए
मधु के लोभी भँवरे जब-जब
गुनगुनाते आ गए
स्मृतियों के धुंधलके
मन-पटल पर छा गए
न सुर ही मुझसे कोई सजा
न तुम्हें सका पुकार मैं
प्राण ! तुम बिन कौन-सा
स्वप्न करूं साकार मैं . . . . .
मौन भावना तृषित कामना
तृण-तृण कर जल रही
शशि के दरस को आँख रवि की
दीप-शिखा-सी जग रही
युगों-युगों की प्यासी निशि-बाले
दिन के पीछे चल रही
सिसकती-बिखरती मेरी आस ने
इक बात मुझसे कल कही
आज का दिन और जी लूँ
फिर तजूं संसार मैं
प्राण ! तुम बिन कौन-सा
स्वप्न करूँ साकार मैं . . . . .
गिरि का अँचल विस्तार पथ का
और समां ये मदभरा
प्रणय की प्रथम वेदना से
पीत हुई ज्यों वसुंधरा
यौवन की वेला विरह की अग्नि
झुलसाती है ज़रा-ज़रा
कवि की मदिर कल्पना तुम
स्वप्न हो इक रंग भरा
राग-रंगपूरित कल्पित-कथा का
कब तक बनूं आधार मैं
प्राण ! तुम बिन कौन-सा
स्वप्न करूँ साकार मैं . . . . . !
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२