प्रतिबिम्ब
जब ख्याल तुम्हारा आता है प्रिये
ढूँढने लगती हूँ मैं पहचान अपनी तुम में
उठते बैठते जागते सोते हर वक्त
दिनकर के पुरूरवा की आकृति बनती
हो भी क्यों न ऐसा , बचपन से अब तक
मैं अपने को तुम में अभिव्यक्त करती रही
मेरी मुस्कानों मे फूल बन तुम खिलते
प्रेम के आलिंगन की यादें ताजी करते
मेरे पास नहीं जब , छाया बन थामे मुझे
दिये हुए तुम्हारे प्रेमसिक्त चुम्बन है खिलते
आज भी मेरे कोमल कपोलों पर सजते
भाव विभोर हो जाती हूँ समा कर तुममे
देखती हूँ जब तुमको अपने अन्दर मैं
एक आग भडक जाती है मेरे सीने में
सुलग -सुलग कर ज्वाला की लपटें उठती
फिर मुझमें तुम ही तुम केवलनजर आते
रात दिन सूरज चाँद और जगत चलते
प्रिये तुम में ही विचरण करते रहते
और तुम में ही देख रही हूँ लेखनी को मैं
जो मेरी पीडा आकुलता से थिरक रही
उस प्रेम पत्र पर ।