प्रकृति का प्रकोप
#सादर_नमन_मंच
#राब्ता_
किया असंतुलन प्रकृति में,हुआ मानव से दोहन बारंबार।
आज कुपित होकर प्रकृति,कर रही जग भीषण संहार।
वन प्रदेश शून्य हुआ जब,तप्त हुई धरती कटे बहु वृक्ष।
बंद हुआ पंछियों का कलरव,बसे नगर अनेक नए प्रत्यक्ष।
धुआं प्रदूषण का है फैला,अवशोषित बह रहे पदार्थ।
जल भी विषाक्त होने लगा,बदला गया पृथ्वी का यथार्थ।
पिघलने लगे हिम ग्लेशियर,बढ़ रहा ओजोन परत मे छिद्र।
मौसम ने रुख बदल दिया,कोप प्रकृति ने हैं दिखलाया।
कहीं बाढ़ से गांव उजड़ गए,कही पे भू स्खलन ने थर्राया।
कही सूखे ने फसलें सुखाई,कहीं गर्मी ने कहर है ढाया।
संभल मानव सुधार भूल तू, कटे न अब और कोई वन,
मत छीन सौन्दर्य प्रकति का, लौटा दो उसका वही जीवन।
स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा
शाहजहांपुर
उत्तर प्रदेश