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20 Oct 2022 · 3 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष
लेखक : महेंद्र प्रसाद गुप्त, रामपुर, उत्तर प्रदेश
प्रकाशन का वर्ष : 2016
प्रकाशक : उत्तरा बुक्स , बी-4/310 सी,केशवपुरम, दिल्ली 110035
दूरभाष 011-271 030 51,
098686 21277
मूल्य : ₹395
समीक्षक : डॉ ऋषि कुमार चतुर्वेदी (अवकाश प्राप्त हिंदी विभागाध्यक्ष, राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर, उत्तर प्रदेश)
_________________________
नोट : प्रस्तुत समीक्षा डॉ. ऋषि कुमार चतुर्वेदी जी पुस्तक के प्रकाशन के उपरांत मुझे दुकान पर दे गये थे । अब जब सोशल-मीडिया पर प्रकाशन का अवसर सुलभ हुआ है, समीक्षा पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है। समीक्षा के साथ ही चतुर्वेदी जी का एक पत्र भी संलग्न था, जिसमें उन्होंने मुझे काट-छॉंट का अधिकार दिया है । अत्यंत कृतज्ञतापूर्वक यह उच्च कोटि की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है-
रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
————————————-
महेंद्र जी की पत्रकारिता एक मिशन

“मेरी पत्रकारिता के साठ वर्ष” एक प्रकार से महेन्द्र प्रसाद गुप्त की आत्मकथा ही है, जिसे कभी उनके सहयोगी रहे नवोदित जी ने आग्रह पूर्वक उनसे लिखवा लिया है। नवोदित जी के अनुसार यह पुस्तक इसलिए कि पत्रकारिता का पेशा अपना चुके नौजवान यह जान सकें कि आदर्श पत्रकारिता क्या होती है और पत्रकारिता को एक मिशन की तरह कैसे किया जा सकता है।
महेन्द्र जी ने एक व्यापारी परिवार में जन्म लिया और वह भी बड़ी आसानी से अपने पिता का व्यवसाय अपना कर जीवन-यापन कर सकते थे। किन्तु वह किसी दूसरी मिट्टी के बने थे। ‘आनन्दमठ’ जैसे उपन्यास और भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों की जीवन-गाथा पढ़ कर उनके भीतर देश-प्रेम हिलोरें लेने लगा था। किशोरावस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये और उसके सक्रिय सदस्य बन गये। गॉंधी जी की हत्या के बाद संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया और उसके सदस्यों को गिरफतार कर लिया गया। उन्हें उनके हितैषियों ने बहुत समझाया कि माफी माँग कर छूट जाओ। किंतु महेन्द्र जी ने इसे स्वीकार नहीं किया।
जेल से छूटने के बाद महेन्द्रजी ने पत्रकारिता का क्षेत्र अपनाया। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू के अनेक पत्रों के संवाददाता बन गये । इसके साथ ही उन्होंने ‘सहकारी युग’ नामक एक साप्ताहिक पत्र निकाला । देश स्वतंत्र हो चुका था। चुनाव की गहमा-गहमी शुरू हो गई थी। नगर के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति कांग्रेस पार्टी में आ गये थे । नवाब रजा अली खाँ और उनके बाद उनके दोनो पुत्र तथा पुत्रवधू चुनावी गतिविधियों में भाग ले रहे थे। उनके पास धन की कमी नहीं थी । उन्होंने महेन्द्रजी को अपने अनुकूल बनाने के अनेक प्रयत्न किये। किंतु महेन्द्र जी किसी प्रलोभन में नहीं आये। उन्होंने साफ कहा – रामपुर में कम से कम एक कलम ऐसी है जो बिक नहीं सकती।
महेन्द्रजी पत्रकार थे, तो रामपुर के डी०एम० और एस. पी. से संपर्क होना स्वाभाविक ही था। किस अधिकारी से कैसे संबंध रहे, महेन्द्रजी ने विस्तार से इसकी चर्चा की है। टी.जार्ज जोसेफ (डी0एम0) और विक्रम श्रीवास्तव (एस.पी.) से महेन्द्र जी और महेन्द्र जी से वे बहुत प्रभावित रहे। ‘सहकारी युग’ के अपने किसी संपादकीय में महेन्द्र जी ने इन दोनों को आदर्श अधिकारी बताते हुए इनकी प्रशंसा की थी।
महेन्द्र जी पत्रकारिता के अपने जीवन में अनेक राजनेताओं के संपर्क में भी आये और इसका विवरण प्रस्तुत आत्मकथा में दिया है। इनमें देवराज अर्स तथा राममनोहर लोहिया का वर्णन विशेष रोचक बन पड़ा है। अनेक साहित्यिक विभूतियों से भी उनका संपर्क हुआ । इनमें विष्णु प्रभाकर, लक्ष्मीनारायण लाल तथा भारत भूषण विशेष उल्लेखनीय हैं।
महेन्द्र जी ने इस पुस्तक में अपने कार्यालय के कुछ सहयोगियों को भी याद किया है। इन सहयोगियों ने भी महेन्द्र जी के साथ बिताये दिनों का स्मरण किया है। सभी संस्मरण किसी न किसी दृष्टि से सराहनीय हैं। ऊदलसिंह और नवोदित ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने कार्यालय तक ही सीमित न रहते हुए, महेन्द्र जी के पारिवारिक जीवन में भी सहायता की । नवोदित जी का संस्मरण तो अपनी सह‌जता और स्वाभाविकता के कारण, विशेष रूप से प्रभावित करता है।
पुस्तक के अंत में रवि प्रकाश जी ने महेन्द्र जी के एक विशिष्ट गुण ‘अपरिग्रह’ की प्रशंसा की है। महेन्द्रजी वास्तव में अपरिग्रही हैं और अनासक्त भी । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वर्षों तक सक्रिय कार्यकर्ता रहे, किंतु 1955 में उससे संबंध-विच्छेद कर लिया। ज्ञानमंदिर पुस्तकालय बनाने में उनका विशेष सहयोग रहा, किंतु किसी कारण से उससे भी संबंध तोड़ लिया ।
पुस्तक का गेट-अप बहुत सुंदर है और मुखपृष्ठ पर महेन्द्र जी का चित्र बहुत स्वाभाविक और सजीव बन पड़ा है, इसके लिए (शायद) नवोदित जी ही बधाई के पात्र हैं।
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प्रिय रवि प्रकाश जी,
समीक्षा भेज रहा हूॅं । जहॉं आवश्यक समझें, काट-छॉंट, परिवर्तन-परिवर्धन कर लें।
ऋषि कुमार चतुर्वेदी
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