पुस्तक समीक्षा -‘जन्मदिन’
‘जन्मदिन’ – लेखक – विजय कुमार
सूर्यभारती प्रकाशन
नई सड़क – दिल्ली – 01123266412
मूल्य – 200/
मुद्रक – निधि एंटरप्राइजेज
ISBN- 978-93-83424-98-6 , पृष्ठ – 160
कुल लघुकथाएं – 74
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सकारात्मक शीर्षक वाला लघुकथा संग्रह ‘जन्मदिन’ पढ़ते ही मन गहरे चिंतन में डूब गया। पुस्तक में अपने आर्शीवचन में आदरणीय उर्मि दीदी ने लिखा है-‘लघुकथा को सबसे बड़ा लाभ अपने लघु होने का मिला है।’ यह बात पूर्ण रूप से सही प्रतीत हुई। यकीनन साहित्य की इस विधा ने बहुत जल्दी पाठकों को प्रभावित कर लिया है। मेरे विचार से एक पल में जिये गये जीवन के व्यापक प्रभाव की अभिव्यंजना को लघुकथा में समेटा जा सकता है। लघुकथा, राजनैतिक उथल-पुथल, आम आदमी की सामाजिक जिम्मेदारी, संवेदनात्मक व्यवहार, सामाजिक-आर्थिक अस्थिरता को संकेतात्मक रूप से अभिव्यक्त करने की सशक्त विधा है। व्यक्तिगत संबंधों तथा जीवन के मानवीय मूल्यों में आए परिवर्तन को बहुत बारीकी से प्रकट कर देने वाली यह विधा आज के पाठक को आकर्षित ही नहीं कर रही अपितु पाठकों द्वारा सबसे ज्यादा पसंद भी की जा रही है। छोटे-छोटे वाक्यों में अनुभव पिरोने की तथा संदेश देने की कला हर लेखक में नहीं होती है। विजय जी की लघुकथाएं वैचारिक स्तर को प्रभावित तो करती ही हैं, साथ ही, कुछ सोचने पर भी विवश करती हैं। सामाजिकता को नया रूप देती सी लघुकथाएं नव-चिंतन से पाठक को जागरूक करती हैं। पुस्तक की सबसे पहली लघुकथा -‘अमीर’ पढ़कर अमीरी का अर्थ एक अलग रूप लिए मिला। एक सुंदर संदेश भी हृदयग्राही रहा कि समाज के लोग यदि ऐसा सोचें तो तरक्की के मायने ही बदल जायें और जहाॅं लोग पद-भेद के कारण परस्पर दूरी बनाते हैं, वो भी समाप्त हो जाये। उदाहरण-स्वरुप एक पंक्ति देखिए जिसमें पात्र अपने परोपकारी व्यवहार से मिलने वाले सम्मान को अभिव्यक्त करता है तो मन प्रसन्न हो जाता है -“आज पूरा शहर ही नहीं, वरन् पूरा देश मेरा आदर करता है और मुझे मेरे नाम से पहचानता है।”
कुल 74 लघुकथाओं के अविस्मरणीय मोती इस पुस्तक रूपी माले को अद्वितीय बना देते हैं। पुस्तक की सबसे सुखद अच्छाई यह है कि इसको ‘वाद’ से दूर रखा गया है तथा लेखक ने किसी एक विषय को न पकड़ते हुए विभिन्न विषयों के ज्वलंत मुद्दों को उठाया है जिससे वो टाइप्ड होने से भी बचा है, तथा लघुकथा की रोचकता भी नहीं घटने पाई। यहाॅं मैं यह भी कहना चाहूॅंगी कि लेखक ने जिस साहस से जीवन की समस्याओं के समाधान बताएं हैं, काबिले-तारीफ हैं। ‘अमीर’, ‘युक्ति’, ‘भगवान बसते हैं’ जैसी लघुकथाएं बरबस ही समाज का आईना बन गई हैं। उदाहरण देखिए “जैसे ही उसने आटो वाले को देने के लिए रुपये गिनने शुरू किए, वह हैरान रह गया। दस-दस के उन नोटों में से कुछ नोट पूरे नहीं, बल्कि आधे-आधे थे। उन्हें इतनी सफाई से एक दूसरे में फंसा कर रखा गया था कि वे नोट पूरे प्रतीत हो रहे थे, जब वह लड़के उसे दे रहे थे” एक अन्य भाव…..”यह सोचकर स्टेशन की तरफ बढ़ गया, क्या सचमुच ऐसी जगहों पर भगवान बसते हैं?” इतनी सटीक अभिव्यक्ति के लिए विजय जी बधाई के पात्र हैं।
‘ खेलो बेटा खेलो’ जैसी लघुकथा के माध्यम से लेखक ने दो पीढ़ी के विचारों को बड़ी ही कुशलता से उकेरा है। जैसे यह उदाहरण देखिए ,”‘दादा जी, अगर हम अच्छे खिलाड़ी बन गए तो आपका, अपने परिवार का और अपने देश का नाम भी तो ऊॅंचा होगा, और सबकी शान और इज्जत बढ़ेगी”‘। दोनों एक साथ बोले।आज के युग में दादा-पोते का यह संवाद, जब दादा जी ने इसके जवाब में कहा “हाॅं, ये मानने वाली बात है” तो दो पीढ़ियों में परस्पर समझदारी का भाव बहुत सुखद लगा।
एक बात मैं और कहना चाहूॅंगी कि लघुकथा के विकास में वर्तमान युग की यांत्रिकता और व्यस्तता का बहुत योगदान है। लघुकथा का आरंभ बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक से माना गया है। यह ऐसी विशिष्ट विधा होती है जिसमें न भारी-भरकम घटना होती, न विवरण , न प्रत्यक्ष रूप से उपदेश । जब लेखक किसी और बहाने से किसी और को उपदेश देता है तो इसे अन्योक्तिपरकता कहते हैं | इसी तरह प्रतीकात्मकता , विवरणहीनता, व्यंग्य, अन्योक्तिपरकता, लघुता आदि लघुकथा की विशेषताएं हैं तथा विजय जी की लघुकथाएं इन सभी मानकों पर खरी उतरी हैं।
विजय कुमार जी की कुछ लघुकथाएं जैसे ‘शुक्र है’ , ‘पालीथीन’ , ‘एहसान’ , ‘ऐसे गुजर होगी नहीं’ , ‘सड़क’ , ‘चारो तरफ से रास्ता बंद’ , ‘अफसोस’, ‘हार्न’, ‘बीच का रास्ता’ , ‘अनुभव की बात’ , ‘पर्दा’ , ‘ये दिन फिर नहीं आएंगे’ , ‘लगाव’, ‘की-बोर्ड’ , ‘फोन काल’, ‘दान’, पन्नी , ‘असली नायक –नायिकाएं’ आदि लघुकथाएं बहुव्यापी संदेश देती हैं। लेखक को सैल्यूट ! ‘डर’, ‘बच्चे’ , ‘वाह क्या बात है’ जैसी कहानियाॅं मनस पटल पर प्रभाव डालने में सक्षम रही हैं। ‘विज्ञापन’ स्त्रियों की ख़रीदारी की भावना पर कटाक्ष है | ‘स्वाभिमान’, ‘उपहास’, ‘स्वाद आ गया’ अपेक्षाकृत थोड़ी बड़ी हो गई प्रतीत होती हैं, जिनके कुछ संवादों को हटाया भी जा सकता था।
‘अपना हिस्सा’ जैसी लघुकथा को पढ़कर लगा कि लेखक समाज की हर विसंगति की अनुभूति करता है। लेखक ने बहुत मनोयोग से अपने भाव संप्रेषित किए हैं। ‘इस बात में दम है’ जैसी लघुकथा में डिस्पोजे़बल पर कटाक्ष करने के साथ ही पर्यावरण सुरक्षा का भी संदेश दिया गया है।
‘सही मूल्यांकन’ जैसी लघुकथा आज की कट-पेस्ट कल्चर पर प्रहार है। समाज में फैली छोटी-छोटी बुराइयों पर लेखक ने जिस तरह से समृद्ध लेखन किया है, वो स्वागत-योग्य है। लेखन जब समाधान के साथ होता है, तभी सार्थक होता है। विजय जी ने सतहा लेखन न करके नवीन विषयों पर प्रयोगधर्मिता के साथ जो साहित्य सृजन किया है, वो प्रशंसनीय है।
पुस्तक प्राप्त करने के लिए
विजय कुमार
सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका),
अंबाला छावनी-133001,
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रश्मि लहर
लखनऊ