पुस्तक मेला
हर्ष को पुस्तकें पढ़ना बहुत पसंद है,
वह अपनी जरूरत के हिसाब से पुस्तक के चयन करने में परख रखता है,
अपने माता पिता, दोस्त , सगे संबंधी, भाईयों से अक्सर वार्तालाप में अपनी रुचिकर बातें निकाल कर अपने शौक को ऊर्जा देते रहता है,
अखबार आजकल उसके लिए सही स्त्रोत नहीं है.
ऐसा उसकी बातों से झलकता है.
कहानी का पात्र मेरा पुत्र है,
पापा जी
न केवल मैने, ये कथन सिर्फ़ पढ़ा है.
देखकर तथ्य पक्का हो जाता है कि :-
पहले अखबार छपकर बिकते थे.
आजकल बिक कर छपते हैं !!!
मुझे लगा यह बात अनुभव से नहीं पढ़कर ही बोल रहा होगा, तभी मैंने एक प्रश्न दागा.
अच्छा ये बताओ,
तथाकथित धर्म के बारे में आप क्या जानते हो,
और आप किस धर्म को श्रेष्ठ मानते हो.
उसका जवाब सुनकर मैं भौचक्का रह गया,
उसने कहा तथाकथित धर्मों जैसा कुछ नहीं है.
श्रेष्ठता तो स्वयं में एक बिमारी हैं.
मैं प्रकृति एवं निसर्ग को जानने की चेष्टा करता हूँ.
फिर चाहे, वह मन की प्रकृति स्वभाव का सवाल हो.
या जीव-जन्तुओं की प्रकृति और स्वभाव हो.
मेरा उससे अगला सवाल था,
इस तरह की जानकारी कहाँ से जुटाते हो,
और इससे संबंधित पुस्तकें आपको कहां से मिलती है.
उसका जवाब था,
मनुष्य में तर्क-वितर्क की कला हो, रहस्य को खोजने की भूख, हमेशा विज्ञान की तरफ ले जायेगी,
अन्यथा आप धार्मिक स्थलों की यात्राओं में व्यर्थ ही निवेश करते नजर आयेंगे,
यह सिर्फ़ आपसी सहमति एवं सामंजस्य स्थापित करने की एक कड़ी मात्र है.
मैंने कहा चलो छोड़ो. ये बताओ, विज्ञान और धार्मिक कथनानुसार मनुष्य के विकास में बढ़ा योगदान मानते हो, और इस तरह वाली पुस्तकें कहाँ से प्राप्त करते हो,
हर्ष ने स्पष्ट जवाब दिया,
बेशक वैज्ञानिक मत के आधार को तव्वजो देता हूँ.
और पुस्तकालय मेरी प्राथमिकता,
और पुस्तक मेले मेरे लिए श्रेष्ठ भ्रमण स्थान.
बाबा साहब भीमराव रामजी अंबेडकर मेरे प्ररेणा श्रोत्र
जिंहोने अपना संपूर्ण जीवन वंचितों के ऊपर न्यौछावर कर दिया,
उनके निर्णय लेने की क्षमता,
हक की लडाई लडने का अंदाज़ विरोधियों को भी अपना बना लेती है,
हर पल एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत शक्सियत,
मानो विश्व में एक विशिष्ट प्रकाश फैलाने के लिए जन्मे हो,
पुस्तक मेले जीवन के विभिन्न आयामों सोपानों पर मिलने वाली पुस्तकों का एकमात्र स्थान.
जहां पर विभिन्न प्रकाशक आपको सुने अनसुने कवि/लेखक/उपन्यासकार/रहस्यदर्शी/दार्शनिक/जीवनदर्शन को एक मंच पर लाने का आयोजन है.
डॉक्टर महेन्द्र सिंह हंस