पुरूष भी दर्द से बिलखता है।
पुरूष भी दर्द से बिलखता है
लेकिन किसी से कहता नहीं
ऐसा कौनसा दर्द बाकी रहा
जो वो चुपचाप सहता नहीं
उसकी आंखों में आसानी से आंसू आते नहीं
क्योंकि उसकी आंखों में अपने बसते है
महंगे ख्वाब देखता है वो सबके लिए मगर उसके ख़ुद के ख्वाब सस्ते है
पुरूष प्रधान को हमेशा दोषी ठहराया जाता है
लेकिन ना जाने हर पल में वो कितने किरदार निभाता है
बेटा बनकर अपनी ज़िम्मेदारी पूर्णता निभाता है
भाई बनकर वो हर पल अपनी कमर कसकर तैयार रहता है
अगर दोस्त बनकर थाम लिया हाथ तो जिंदगी भर छोड़ते नहीं
वो तो उसकी तकलीफों को अपनी ओर मोड़ लेते है
पति बनकर वो अपनी गृहस्थी को संभालता है
पिता बनकर वो अपने बच्चों को धूप से बचाता है
ये पुरूष प्रधान हर दिन नई चुनौती को अपनाता है
त्याग तपस्या धैर्य की देवी हमेशा नारी कहलाई
पुरुषों की कहानी हमको समझ कभी नहीं आई
कड़ी धूप हो या हो फिर तूफ़ान
आदमी को घर से निकलना पड़ता है
वो आदमी ही तो है जो तूफानों में भी अपनों के लिए लड़ता है
अपनों की खातिर वो अपनों को छोड़ देते है
भविष्य की खातिर पाई पाई जोड़ लेते है
औरत बचाती है मकान को घर बनाती है
पुरूष कमाता हैं ईंट पत्थर जोड़कर मकान बनाता है
पुरुषों ने कभी अपने लिए कमाया नहीं
खुद के लिए कोई स्थान बचाया नहीं
अपनों को देखकर खुशी ढूंढ लेता है
वो तो अपने फ़र्ज़ के लिए अपने दर्द को आसानी से सह लेता है।
हां पुरूष भी दर्द से बिलखता है
लेकिन किसी से वो कहता नहीं
ऐसा कौनसा दर्द बाकी रहा उसके जीवन में जो वो चुपचाप सहता नहीं ।
रेखा खिंची ✍🏻✍🏻