पीठ के नीचे ..
पीठ के नीचे ..
बेघरों के
घर भी हुआ करते हैं
वहां सोते हैं
जहां शज़र हुआ करते हैं
पीठ के नीचे
अक्सर
पत्थर हुआ करते हैं
ज़िंदगी के रेंगते सफ़र हुआ करते हैं
बेघरों के भी
घर हुआ करते हैं
भोर
मजदूरी का पैग़ाम लाती हैं
मिल जाती है
तो पेट आराम पाता है
वरना रोज की तरह
एक व्रत और हो जाता है
बहला फुसला के
पेट को मनाते हैं
तार्रों को गिनते हैं
ख़्वाबों में सो जाते हैं
मज़दूर हैं
लोगों के घर बनाते हैं
अपने घरों से महरूम रह जाते हैं
बिना दीवारों के भी तो
घर हुआ करते हैं
सच
हम बेघरों के तो ऐसे ही
घर हुआ करते हैं
सर पे शजर तो
पीठ के नीचे पत्थर
हुआ करते हैं
सुशील सरना