पितृ पक्ष की शुभकामनाएं
व्यंग्य
पितृ पक्ष की शुभकामनाएं..!!
बड़े अच्छे थे भाईसाहब। चले गए। अच्छा हुआ। यहां रहते तो क्या करते। कल तक क्या किया जो अब कर लेते। हम भी क्या करते हैं। सवेरे मोबाइल टू मोबाइल खेलते हैं। नींद अब आती नहीं। उम्र का तकाजा है। सवेरे उठकर गुड मार्निंग करते हैं। हम नहीं सोये तो उसको क्यों सोने देंगे। हमारे पास मैसेज की भरमार है। लाल लाल फूल। सफेद सफेद फूल। पीले-पीले फूल। राधे-राधे। राम-राम जी। कब तक सोते रहोगे…बोलो…गुड मार्निंग। सातों दिन के मैसेज हमारे पास रेडिमेड हैं। हर दिन का मैसेज तय है। सोमवार को शंकरजी, मंगल को हनुमान जी, बुधवार को गणेश जी, गुरुवार को विष्णुजी-साईंराम, शुक्रवार को देवी लक्ष्मी, शनिवार को डराने के लिए शनि देव और इतवार को सूर्यभगवान। कभी कभी बिना चश्मे के मैसेज भेज देते हैं, सो पता नहीं लगता कि हनुमान जी गए या शनिदेव। पढ़ने वाला खुद समझ लेता है कि चश्मा नहीं लगा रखा होगा। कई बार वह खुद भी मैसेज नहीं देखता। वह शनिवार को ही मैसेज देखता है। सोचता है, सही भेजा होगा। रात को भी हम धोखे में गुड मार्निंग कर लेते हैं…पट्ठा कभी तो देखेगा। होता भी ऐसा ही है।
हमारे पास प्रवचनों की लंबी सीरिज है। हर प्रकार का प्रवचन है। साधु संत से लेकर महान कवियों तक की। सुबह उठकर हम सबको संदेश देते हैं….यहां कौन है तेरा मुसाफिर…जाएगा कहां। तेरे सारे रिश्ते नाते झूठे हैं। बस, तू भी पत्ता काट ले। हम भी काट रहे हैं। हम पिचपिचाते गालों के साथ एक फोटो सेंड करते हैं। ज्यादातर ये फोटो गाल बिचकाये अम्मा की होती है। छड़ी लिए बाबूजी की होती है। पास पड़े मुन्नों की होती है। यानी अपने पास हर किस्म के हर इंसान के लिए कोटा है। फीलिंग गुड, फीलिंग सेड, फीलिंग हैप्पी आदि आदि। जहां हमारे मैसेज नहीं चलते, वहां हम सिग्नल का इस्तेमाल करते हैं। हाथ जोड़ते निशान बनाते हैं। बीच में ऊं का निशान। मैसेज सेंड। समझने वाला समझता रहे क्या भेजा है। क्यों भेजा है। व्हाट्सएप ही नहीं हम मैसेज भेजने के तमाम विकल्पों पर अपनी उंगली चलाते हैं। अपनी प्रोफाइल लॉक रखते हैं। बस, दूसरों को पिन चुभाते रहते हैं।
कितने अच्छे थे बाबू जी। हमारे किसी भी मैसेज का बुरा नहीं मानते थे। वो भी रिटायर थे। हम भी रिटायर हैं। हर मैसेज का उत्तर देते थे। बहुत दिनों से उनका मैसेज नहीं आया। मुझे लगा…चले गए। फिर एक दिन। अचानक मिल गये। मैंने सोचा….शर्मा जी तो चले गए थे। ये यहां कैसे…? कितने दिन और रहेंगे। यह भी हमारी जान को एलिजाबेथ हो रहे हैं। 75 साल सरकार चलाते हो गए। मेरी सरकार….सुनो करतार….अब तो चलो।
भारतीय संस्कृति में हर चीज का स्कोप है। मर जाओ तो श्राद्ध का स्कोप। जीओ तो तानों का स्कोप। स्कोप ही स्कोप। इसलिए, कभी भी हमने श्राद्ध की शुभकामनाओं का बुरा नहीं माना। आज नहीं तो कल जाना ही है। दो दिन आंसू बहाना है। फिर हंसना है। सुना है, काका हाथरसी की अंतिम यात्रा में सब हंसे थे। हम भी काका ही हैं। हंसते हंसते जाते हैं। तुम भी चैन से रहो। हमें भी चैन से रहने दो। इसलिए, शुभकामनाओं से परहेज क्यों…? कौन सा हम रोजाना श्राद्ध करते हैं। मरते ही सारे काम निबटा देते हैं। शिवजी ने गंगा इसलिए धरती पर उतारी ताकि हमारा भला हो सके। हम बरसी, तेरहवीं दसवां सब एक साथ कर सकें। लेकिन शास्त्रों का क्या करें….? ये कहते हैं कि पितृ रोज आते हैं। हम कर भी लें तो पंडित जी अब खाते नहीं। उनकी कई जगह बुकिंग रहती है। कौए मिलते नहीं। कुत्ते छूते नहीं। गाय…गाय है, वह कितना खाये।
मनसुखलाल की बातें सुन मैं भी अपने बारे में सोचने लगा। गुड मार्निंग के मैसेज ढूंढने लगा। पितृ पक्ष की शुभकामनाएं देने में बुराई क्या है। मोक्ष मिला। यहां रहते तो क्या कर लेते। वहां हो तो कुछ कर अवश्य रहे होगे। दुनिया तो जंजाल है। यह कब किसकी हुई। तेरी हुई न मेरी हुई। बातों में ही बातों में फेसबुक देखना भूल गया। देखूं तो किसकी टांग टूटी। किसकी वाह-वाह मिली। सोशल मीडिया भी वो प्लेटफॉर्म है, जहां हर चीज हासिल है। हर अवसर पर गाने वाले। हर अवसर पर बजाने वाले।
सूर्यकांत