*** ” पागल पथिक………..!!! ” ***
## : मेरे चंचल मन में एक भ्रम था ,
विचारों में चिंतन का अनवरत क्रम था।
क्या है…? ,
” जीवन ” जीने का आधार ;
कैसे होना है…?, उसमें सवार ।
मेरे मन में क्यों है ,
इतनी अभिलाषा …? ;
क्या है, जीवन की परिभाषा….?
पण्डितों से विचार-विमर्श किया ,
ज्ञानियों-विज्ञानियों से तर्क-वितर्क किया।
” कथन ” उनका कुछ मार्मिक था ,
वैचारिक मंथन कुछ तार्किक था।
पर…….!
मन मेरा संतुष्ट न हुआ ;
भ्रमित मन और अति गतिमय हुआ।
भ्रम-संसय प्रबल हुआ ,
चातक मन और अति चंचल हुआ।
भ्रमित विचारों से और उलझता गया ,
प्रमाणिकता की खोज में।
मैंने , कुछ कदम और बढ़ाता गया ;
नवीन चिंतन की शोध में।
यूँ ही , चिंतन में कुछ दिन ब्यतित हुए ,
” जीवन “की अभिलाषा में । मेरा विचलित मन-चित संलिप्त हुए ,
और विचलित-मन विन्यास में ।
मैंने……!
कुछ सत्संग-प्रवचन में सम्मिलित हुआ ,
पर…….!
मेरा चातक मन संतृप्त न हुआ।
## : सावन की झड़ी में ,
कार्तिक की कड़क ठण्ड में ;
गर्मी की तपन में ,
अंतरिक्ष-नील गगन में।
अंतर-आकुल मन ,
व्यर्थ चिंतन की चुभन में ।
दर-दर भटकता गया ,
” जीवन ” की अभिलाषा और बढ़ता गया।
आधुनिकता की आविष्कार …..,
गूगल-सर्च इंजन (Google search engine) की चमत्कार।
कुछ भी..….. ,
दे न सका प्रमाणिकता का आधार ,
और हो गये ये…..
सारे के सारे बेबस-बेकार।
चिंतन में… ,
वर्तमान अतीत की तरह प्रतीत हुआ ;
मेरा मन ” पागल ” की तरह प्रतीत हुआ।
मन में चिंतन क्रम अविराम है,
लेकिन…..,
परिणामी आशा-दीप में , लगा अल्प-विराम है।
## : न कोई मैं , साधु-संत……! ;
और…….
न कोई महापुरुष की तरह ख़ास।
शायद…!
इसीलिए। हर किसी को लगता है ,
मेरा चिंतन बेदम बकवास।
यारों……
मेरे ” विचार ” सवालों के घेरे में है ; लेकिन…!
ये भी सच है कि…..
परिणाम अज्ञानता के अंधेरे में है।
एक दिन…,
मेरे गाँव में महावतों की टोली आई ;
गली-गली में हुआ हाथियों के फेरा।
हर रोज की तरह…… ,
दिन ढलते-ढलते हो गई अंधेरा।
मेरे कुछ मित्र….,
जो थे अंधेपन का शिकार ;
फिर भी उनके मन में था,एक विचार।
हाथियों के आकार कैसा होता है ..? ,
हम भी हो जायें कुछ होशियार।
उन्होंने…..! ,
हाथियों को बारी-बारी स्पर्श किया ,
स्पर्शानुभव….! ,
फिर सबने अपना-अपना तर्क दिया।
किसी ने हाथी को कहा खंभा ,
किसी ने कह दिया ” दीवार ” ।
किसी ने ” रस्सी ” कहा….! ,
और…..
किसी ने कह दिया कि…
ये तो लचीला रबर जैसा है ओ मेरे यार।
लेकिन….!
लोगों ने कहा ओ अंधे गंवार ,
हाथियों के नहीं होते ऐसे कोई आकार।
मत बनो ज्यादा होशियार ,
प्रभु हैं , इनके रचनाकार।
काश….!
प्रभु करे कोई ऐसा चमत्कार ,
और…..
तुम सबके जीवन में आ जाये , सदाबहार।
बरगद के नीचे बैठा….. ,
मैं पथिक-पागल-आवारा ;
समझ नहीं पाया मैं…. ,
प्रकृति (प्रभु) का ईशारा।
मेरे विचारों का ” उत्तर ” वहीं था ,
जो किसी ज्ञानी-विज्ञानियों के… ,
तर्क-वितर्क में नहीं था।
संसय-भ्रम संग्राम में ,
ब्यर्थ-चिंतन को लगा पूर्ण-विराम।
अब…
मेरे मन में बसने लगा ,
वृन्दावन धाम ।
मुझ-अबुझ-अनाड़ी को कुछ-कुछ ,
समझ आने लगा ।
” कह जाता है हर कोई…… ,
जो देखा….,
अनुभव किया और महसूस किया…..!! ”
वही है ” जीवन ” का एक मात्र आधार…! ”
लेकिन दोस्तों …,
” जीवन कैसे जीना है …? ”
कोई नहीं है इसका स-प्रमाणिक आधार।।
” जीवन का अनुभव ”
” जीवन का दर्शन होता है , ”
लेकिन…..!
” जीवन का मूलाधार नहीं। ”
सोंच-विचार… , प्रकृति-व्यावहार… ,
हर किसी का अपना, अलग-अलग होता है ;
लेकिन…. ,
” जीवन का मौलिक आधार नहीं।। ”
पर…..! ,
सच कहूँ यारों…..!!! ;
कहता है ये पागल-पथिक-आवारा ,
जीवन में नहीं है किसी का सहारा।
” जीवन एक जलधारा है ” ,
सुख-दुख है , इसका अटूट किनारा।
मन में रखो प्रबल-शक्ति का पतवार ,
और…….
हर परिस्थितियों में कर जाओ ..
यह (जीवन की) नय्या पार।
न बहाओ तुम कभी आँसुओं की धार ,
और…..
जिंदगी के हरपल को बनाओ खुशनुमा-सदाबहार।
हर कोई मुसाफिर है यारों….!!
इस अज़नबी जहांन में ।
ये न सोंचो…..! ,
जिंदगी इतनी आसान है ;
यहाँ तो हरपल कटता है
इम्तिहान ही इम्तिहान में ।।
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर (छ.ग.)