पाँच गो दोहा
धन दउलत मिथ्या हवे, जनवे हवे जहान।
बड़हन सम्पति स्वास्थ्य बा, राखऽ एकर ध्यान।।
करिहऽ जनि कबहूँ सखे, दउलत पर अभिमान।
रंक रहल राजा भइल, चहलन जब भगवान।।
सम्पति से सुख ना मिलल, देखऽ आँख पसार।
मन में जदि संतोष बा, सुखवा मिले अपार।।
हाथ पसरले सब गइल, राजा रंक फकीर।
सम्पति खातिर जनि कबो, ‘सूर्य’ गिरावऽ नीर।।
सम्पति सुख सपना हवे, रहल न हरपल साथ।
सूर्य करऽ संतोष अब, जवने आइल हाथ।।
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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