मैं चाँद पर गया
पल सुहेला,
रजनी बेला।
न कोई मेला,
मैं अकेला।
अंतरिक्षयान
भरा उड़ान।
दौड़ता विमान,
चीरे आसमान।
तीव्र बेग से बढ़ता जाए,
चांद की ओर चढ़ता जाये।
यान गतिमान,मैं परेशान,
सुना गगन न कोई निशान।
मंजिल को पाऊंगा,
या रास्ते में मिट जाऊंगा।
यह क्या यान लड़खड़ाया,
मैं खुद को चाँद पर पाया।
बचपन में दादी छत ले जाती थी,
रात में चंदा मामा दिखाती थी।
मन मेरा हरसाता था,
पर कुछ नहीं समझ आता था।
दादी कहती देखो चाँद पर
बुढ़िया चरखे से सूत कात रही है।
मैं सोचता दादी ने जो कहा,
क्या सच में यह बात सही है।
राहु जब आता है,
चाँद को सताता है।
बुढ़िया भग जाती है
भगवान को बताती है।
न बुढ़िया चरखा कात रही,
न सतह पर काहू है,
हर तरफ सूनापन,
कहीं नहीं राहू है।
उबड़ खाबड़ चटटानों पर,
रेत ही रेत है।
न कहीं वृक्ष पक्षी पशु नर,
न ही भूत या प्रेत है।
मैं चांद पर टहल रहा था,
खुद में बहल रहा था।
एक टीले से टकराया,
बिस्तर से नीचे खुद को पाया।
चीख निकल गयी,
मुझे लगा माथा फूट गया।
लेकिन मैं धरती पर था,
बस मेरा सपना टूट गया।
सतीश सृजन