पलायन करते मजदूर का दर्द और जज़्बा…… ” हमारा बड़प्पन “
हमने….
बहुत मेहनत कर – कर के अपनी कमर तोड़ कर
कुछ कपड़े थोड़े से बर्तन ज़रा सी रसद रखी थी जोड़ कर ,
कुछ ही पल में….
सब छोड़ टूटी कमर के साथ
चल दिये पकड़ अपनों का हाथ ,
हम सब में….
कहाँ इतना दम था
पर हौसला नही कम था ,
तभी तो….
जो कभी ना सोचा वो कर गये
मीलों तक के रास्ते क़दमों से नप गये ,
क्या करते….
कहा था सबको घर में ही रहना है
अपनों के बीच इस महामारी से बचना है ,
इसीलिये तो….
चल दिये अपने घर की ओर
बिना सोचे इस छोर से उस छोर ,
सफ़र में….
इतना भयानक मंज़र था
भूख प्यास का घातक ख़ंजर था ,
फिर भी….
अपनों को पीठ पर लादे सीने से चिपकाये
इस तपती धूप में चलते रहे बिना पिये खाये ,
मजबूरी थी….
अपनों के साथ अपनों के पास अपने घर पहुँचना था
उनके लिये इस महा विपदा को रो कर ही सहना था ,
किस्मत देखो….
हमने जिनके सर पर छत दी वो सुरक्षित हो गये
और हम सब उनके ही शहर में उपेक्षित हो गये ,
बिडंबना है….
हम ड्राइवर बने पैदल चले कुक बने भूखे रहे
घर बनाया बेघर हुये माली बने सूखे रहे ,
आश्चर्य है….
जिनकी सुख – सुविधाओं के हम साधन बने
उनमें से एक भी नही हमारे लिये वाहन बने ,
आख़िरकार ….
कुछ पहुँच गये बचे बाक़ी भी पहुँच जायेंगे
इतनी दुर्गति के बाद अपने आँगन में चैन पायेंगे ,
नतमस्तक हैं….
हम सब मज़दूर खुद खुद पर
पार कर आये हम वैतरणी चल कर ,
अब तो….
लगता है क्या वापस जाना मुमकिन हो पायेगा
ये शरीर इतनी पीड़ा – ज़लालत फिर से झेल पायेगा ?
क्यों नही….
हम सब अपने ही घर में हमेशा के लिये ठहर पाते हैं
मूर्ख हैं जो पल भर में अपना दुख – दर्द सब भूल जाते हैं
माना की….
ये बीसवीं सदी का युग सबसे कुटिल युग है
तभी तो इस युग का नाम पड़ा कलियुग है ,
तो क्या….
ये कलियुग है तो हम कलयुगी मानव हैं
हम विश्वकर्मा के वंशज हैं नही हम दानव हैं ,
क्योंकि….
हम अपनों से बदला नही लेते उनको माफ़ करते हैं
कृतघ्नों को कृतार्थ होने का मौका ज़रूर देते हैं ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 19/05/2020 )