परवरिश
हम भी आधुनिक
समाज में
जो बड़ा घर
कहलाता है
उसके बच्चे थे
पर हमारा घर
दूसरों से
कुछ अलग था
दिन भर
हमारे पीछे भागती
काम वाली
बाई की जगह ‘आई’
बड़े बड़े अभिभाषणों का
हिस्सा बनते पर
बिस्तर पर चौकड़ी मार
माँ के हाथ का बना
खाना खाते बाबा
हम दोनों और
माँ बाबा
बिस्तर पर ही
कैरम की बाज़ी
लगाते
साँझ में सोसाइटी के
बच्चों संग
खेलने जाते
हमें ना कोई
अहम दिया गया
ना ही वहम
बड़े हुए तो समझे
कि बाबा का तो
बहुत रुतबा है
और आई का
बहुत मान
पर तब तक हम
बन चुके थे
आम औ अच्छे इंसान
डॉ निशा वाधवा