*”परवरिश”*
परवरिश
परिवार की धुरी बनकर ,कड़ी मेहनत की कमाई लगाया है।
तिनका तिनका जोड़कर,ताना बाना बुन आशियाना बनाया है।
संस्कार धर्म के पद चिन्हों पे चल संपत्ति का वारिश कहलाया है।
जीवन के उतार चढ़ाव संघर्षो से जूझते चेहरों पे मुस्कान लाया है।
कितना अजीब सा है ना …
वो कल का नन्हा सा फरिश्ता नेक इंसान बन जीने की नई उम्मीद जगाया है।
बूढ़ी उंगलियाँ दास्तां बयां करती सहारा ढूढती,
उंगलियाँ थामे परवरिश का मूल्य चुकाया है।
बुढापा अगर सुखी हो तो समझना,सफलता का प्रमाण दिलाया है।
बचपन में बच्चों को सिखलाते , आज वही फिर से दोबारा नया सीखने का एक मौका आया है।
शशिकला व्यास