परतंत्रता की विरासत स्वतंत्रता के परिपेक्ष्य में ।
परतंत्रता की विरासत स्वतंत्रता के परिपेक्ष्य में
इतिहास गवाह है कि बिहार के युवा छात्रों ने सचिवालय में धावा बोल कर यूनियन जैक का मान – मर्दन किया था , तथा भारतीय तिरंगे झंडे को लहराया था । यह भारत के इतिहास का गौरव मय क्षण था। फिरंगी सरकार के बौखलाये फिरंगी सैनिकों ने अधाधुंध गोलियों की बौछार कर नवयुवा साथियों को मौत के घाट उतार दिया । इतिहास में दर्ज इन शहीदों का बलिदान हर भारतीय के रग रग मे आज भी अक्षुण है। राजधानी पटना कि सड़कों पर बेखौफ घूमते फिरंगी सैनिक आतंक का पर्याय थे । बिहारी माताएँ –बहने डर से तखत , पलंग या चारपाई के नीचे छुप कर के फिरंगी टुकड़ी के गुजर जाने का इंतजार करती था । गृहों में गुर्रे आये गुर्रा आया का शोर फिरंगियों के आतंक का प्रतीक बन गया था । परतंत्रता का ये दंश हमारी माताओं –बहनों ने खूब सहा है ।
फिरंगी न्याय व्यवस्था रंग- भेद एवं नस्ल- वाद की विचार धारा की पोषक थी ।निष्पक्ष न्याय की उम्मीद किसी भी तरह नहीं की जा सकती थी । जहां ग्रामीणों का शोषण जमींदारों के माध्यम से हो रहा था वहाँ शहरों मे फिरंगी सैनिकों का आतंक फैला हुआ था ।
सन 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात इंग्लिश अर्थ व्यवस्था चरमरा रही थी । उपनिवेशों पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए सेना पर व्यय में वृद्धि आवश्यक हो गया था , जोकि संभव नहीं था । प्रशासनिक व्यय पर नियंत्रण मुश्किल हो रहा था । स्वंतत्रता आंदोलन , अराजकता , भ्रष्टाचार ने ब्रिटिश शासन का जीना दुश्वार कर दिया था । अँग्रेजी राज्य के ना डूबने वाले सूरज का अवसान समीप आ गया था । धीरे धीरे उपनिवेश स्वंतत्र हो रहे थे ।
अंग्रेजों ने हमारे देश को जाते –जाते भी नहीं बख्शा । रंग- भेद , नस्ल- भेद के साथ साथ जाति- भेद का जहर भी बो दिया गया । भारत माता की अखंडता पर हिन्दू –मुस्लिम बहुल राज्य का ग्रहण लग गया । जाति- भेद की दरार भारत वर्ष एवं पाकिस्तान के जन्म के समय खूब चौड़ी खाई में परिवर्तित हो गयी । सन 1947 -48 में भारत –पाक युद्ध के समय भी अंग्रेज़ कमांडरों ने खुल कर पाक सेना के पक्ष में रण नीति बनाई ।
भारत माता का शरीर विखंडित हो चुका था , भय था कि कहीं हमारा ये स्वराज्य खंड –खंड होकर भारत वर्ष के इतने टुकड़े ना कर दे कि गिनना मुश्किल हो जाए । भारत माता के लाल सरदार बल्लभ भाई पटेल ने इन बचे खुचे राज्यों का एकीकरण कर अखंड भारत की नींव रखी। इस क्रांतिकारी कदम के पश्चात डा भीम राव अम्बेडकर की अध्यक्षता मे संविधान सभा का गठन किया गया । भारत वर्ष की जनता ने अपने स्वतंत्र संविधान को अंगीकृत किया ।
मैं सपरिवार गंगासागर तीर्थ यात्रा पर गया था । कोलकाता मे एक दिन हमने विक्टोरिया मेमोरियल
हाल का अवलोकन किया । इस भवन में गुरुदेव रवीद्र नाथ टैगोर की अविस्मरणीय कला कृतियों का संग्रह किया गया है । हाल मे प्रवेश करते ही गुरुदेव की कालजयी आत्मा के दर्शन होते हैं , जैसे परतंत्र भारत में नौका खेता नाविक , लौह यंत्रों को आकार देता लोहार , जूतों की मरम्मत करता मोची , अनाज के बोरे पीठ पर लाद कर उठाता पल्लेदार जन मानस की करुण गाथा बयान कर रहे थे ।
मेरे मन मे एक विचार उठा कि गुरु देव ने कहीं भी खेत खलिहानों का चित्रण नहीं किया था , मेरे मन को त्वरित जबाब भी मिल गया । परतंत्र भारत में कृषि व्यापार लगभग समाप्त हो गया था , नील कि खेती ने हमारी अर्थ व्यवस्था व कृषि व्यवसाय को बरबाद कर दिया था ।
ग्रामीणों पर तात्कालीन साहूकारों , जमींदारों के भीषण जुल्म का साकार चित्रण करने की कल्पना मात्र से गुरुदेव का करुण मन सिहर उठा होगा । उनका रोम –रोम काँप उठा होगा कि जब वास्तविकता इतनी क्रूर है कि उसे कल्पना में उतारना रचनात्मकता का अपमान होगा , आखिर वीभत्सता को किसने सराहा है ?किसी ने भी नहीं ।
ब्रिटिश राज्य से मुक्ति के पश्चात सामाजिक विषमता कि खाई चौड़ी हो गयी है।
दलितों के उत्थान , आरक्षण एवं आत्मसम्मान , बराबरी का दर्जा संविधान का अंग तो है , परंतु सामाजिक विषमता की खाई को पाटने में सक्षम नहीं है ।
धार्मिक मान्यताओं , पौराणिक कथाओ के आलोक में गरीबी –अमीरी के बीच शैक्षिक , वैचारिक , धार्मिक , जातिगत असमानता का विकल्प कुछ भी नहीं है ।
परतंत्रता के समय की जागीर आज भी व्यक्तियों मे गौरव का अहसास कराती है । परतंत्रता की काली छाया में भारत वासियों के खून –पसीने की मेहनत पर क्रूरता की पराकाष्ठा लाघीं जाती थी जिससे संपन्नता व विपन्नता के मध्य ये दीवार खड़ी हुई थी। इस बलिदान का अहसास हम सभी को करना ही होगा ।
नगें बदन, नंगे पैर बेड़ियाँ पहने इन भारत वंशियों ने ही तथा कथित महलों , अट्टालिकाओं व विकास की नीव रखी है , उन्हे खूबसूरत आकार दिया है । इन भारत वंशियों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया है , ये दलितों , मजदूरों , कृषकों के संस्कारों में आज भी जीवित है और भारत वर्ष की आत्मा मे रचे –बचे हैं । हमें इन सभी के संस्कारों का सम्मान करना चाहिए , इन्हे सम्मान देना चाहिए , तभी असमानता की खाई पट सकेगी । शिक्षा , रोजगार, व्यवसाय आदि के समान अवसर प्रदान करने चाहिए ।
25 -12 2017 डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव
सीतापुर