परंपराएँ
कविता
बिन समझें सब निभा रहे हैं ।
परंपराएं चला रहे है ।।
परंपरा जो हुई पुरानी।
कुछ अच्छी कुछ बुरी कहानी।।
मृत्यु भोज उनमें से एका।
परवश करते लोग अनेका।।
मान रहे अछूत परिवारा।
भोज हेतु सबको वह प्यारा।
जिंदा में नहि करते सेवा ।
मरने पर खाते सब मेवा।।
प्रज्ञा तो सबसे कहती है ।
ज्ञानहि यज्ञ मुक्ति मिलती है ।।
दहेज राक्षस खूब रुलाता।
तोड़ परंपरा छोड़ को पाता ।।
हर समाज का अलग तरीका ।
माने नहि तो लगता फीका।।
समझ प्रतिष्ठा सभी निभाते ।
कर्ज बना जीवन दुख पाते ।।
दान श्रेष्ट माना जाता है ।
अहं दिखावट से आता है ।।
रीति रही प्रेमहि की भाई।
माँग आधुनिक है दुखदाई ।।
धन से सुविधा तो बढ़ती है ।
सुख तो प्रज्ञा ही देती है ।।
पशु बलि भी परंपरा है ।
धर्म रूप आचरण बुरा है ।।
जप तप नियम नेक सब कर्मा।
यह परंपरा के हित धर्मा।।
सभी जीव ईश्वर को प्यारे।
पुण्य नहीं जो उनको मारे।।
पाप कर्म का फल मिलता है ।
वेद धर्म भी यह कहता है ।।
कांटा भीष्म चुभाया कीरा।
कारण बना चुभे बहु तीरा।
प्रज्ञा कहती यही कहानी ।
कर्म किया तो भोगे प्रानी।।
राजेश कौरव सुमित्र