भारत भूषण व मिर्ज़ा ग़ालिब
मशहूर शा’इर मिर्ज़ा असदुल्लाह खां ‘ग़ालिब’ ((27 दिसंबर 1796 ई. से 15 फरवरी 1869 ई.) और सिने जगत के मशहूर अभिनेता भारत भूषण (14 जून 1920 ई.—27 जनवरी 1992 ई.) … दोनों अज़ीम शख़्सियत (महान विभूतियों) का जीवन तुलनात्मक रूप से एक समान ही रहा। दोनों अपने क्षेत्रों में आफ़ताब बनकर खूब चमके। दोनों का जीवनवृत्त लगभग 71 वर्ष का रहा। दोनों ने युवा अवस्था में बेशुमार शोहरत–दौलत बटोरी। मगर खाया-पिया उड़ा दिया वाली आदत ने दोनों का बुढ़ापा ख़राब कर दिया।
जहाँ ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के बड़े शा’इर थे। ग़ालिब के लिखे ख़तों (पत्रों) को भी उर्दू लेखन का अत्यन्त महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ख़ैर ग़ालिब को भारत व पाक. में एक महत्वपूर्ण कवि-शा’इर के रूप में जाना जाता है। उन्हें मुग़ल बादशाह जफ़र से “दबीर-उल-मुल्क” और “नज़्म-उद-दौला” का खिताब मिला। ग़ालिब दो नामों (ग़ालिब व असद) से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। उनका शुरूआती जीवन आगरा, तत्पश्चात दिल्ली में ग़ुज़रा। उनकी कलकत्ता की यात्रा उनके जीवनकाल का एक अविस्मरणीय अनुभव था। मिर्ज़ा असद को दुनिया में मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उनके एक शेर से इस बात का पता मिलता है:—
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और
वहीं भारत भूषण ‘चित्रलेखा’ (1941 ई.) से सिनेमा में पदार्पण करने के उपरान्त अनेक फिल्मों में छोटे-बड़े रोल करते हुए संघर्षों के धक्कों के बीच आख़िरकार एक दशक उपरान्त ‘बैजू बावरा’ (1952 ई.) की अपार सफलता के बाद न. एक फ़िल्मी सितारे बन चुके थे। फिर तो उनकी झोली में ढेरों फ़िल्में रही। लेकिन भूषण जी कमाते रहे, मगर कभी कुछ बचाना नहीं सीखा था। फ़िल्मों से मिला पैसा फ़िल्मों के निर्माण में ही उड़ा दिया। उन्होंने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में भी कदम रखा, जो कि एक ग़लत निर्णय साबित हुआ क्योंकि उनकी कोई भी फ़िल्म बॉक्स आफिस पर सफल नहीं हुई। उन्होंने 1964 में अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म ‘दूज का चांद’ का निर्माण किया, पर इस फ़िल्म के भी बॉक्स आफिस पर बुरी तरह पिट जाने के बाद उन्होंने फ़िल्म निर्माण से तौबा कर ली।
विजय भट्ट की फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के उपरान्त अभिनेता भारत भूषण के फ़िल्मी करियर में निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘मिर्जा गालिब’ का अहम स्थान है। इस फ़िल्म में भारत भूषण ने शायर मिर्जा के किरदार को इतना सहज, असरदार व प्रभावी बना दिया कि देखने वालों को आज तक ये गुमां होता है कि, ये भारत भूषण है या फ़िल्मी परदे पर खुद मिर्ज़ा गालिब ही उतर आये हैं। उम्दा गीत-संगीत, संवाद तथा अभिनय से सजी-संवरी यह फ़िल्म बेहद कामयाब रही और इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म व संगीत के राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए। ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फ़िल्म के लिए गजलों के बादशाह तलत महमूद की मखमली और गायिका, अभिनेत्री सुरैया की मिठास भरी आवाजों में गाई गई गजलें और गीत बेहद मकबूल हुए .., आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक.., फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया।., दिले नादां तुझे हुआ क्या है (तीनों गीत दीवाने-ग़ालिब से), मेरे बांके बलम कोतवाल.. (शा’इर शकील बदायूंनी) . . . . लेकिन तलत और सुरैया का वक़्त इसके बाद ढलान पर आ गया। रफ़ी, मुकेश, किशोर, लता व आशा के सामने अन्य गायक लगभग नगण्य रहे। ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फ़िल्म के अन्य गीतकार शकील भी जवानी में ही (1970 ई.) मात्र 54 वर्ष की आयु में ही गुज़र गए।
ख़ैर भारत भूषण ने लगभग डेढ़ सौ फ़िल्मों में अपने अभिनय की अनूठी विविधरंगी छटा बिखेरी। श्याम कुमार, अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राजकपूर देवानंद तथा बलराज साहनी जैसे महान कलाकारों की मौजूदगी में अपना एक अलग बुलन्द मुकाम बनाया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित फ़िल्म तकदीर नायक के रूप में भारत भूषण की अंतिम फ़िल्म थी। इसके बाद बढ़ती उम्र ने उन्हें चरित्र अभिनेता के रूप में बदल दिया और नौबत यहां तक आ गई कि जो निर्माता-निर्देशक पहले उनके लिए लालायित रहते थे। उन्होंने भी मुंह मोड़ लिया। अतः इस विकट स्थिति में उन्होंने अपना गुजारा चलाने के लिए फ़िल्मों में मुख्य भूमिकाओं की जगह छोटी-छोटी मामूली भूमिकाएं करनी शुरू कर दीं। इसके बाद वो बुरा वक़्त भी आया कि भारत भूषण को फ़िल्मों में काम मिलना लगभग बंद हो गया। तब मजबूरी में उन्होंने छोटे परदे को अपनाया। ‘दिशा’ और ‘बेचारे गुप्ता जी’ जैसे टी.वी. धारावाहिकों में अभिनय किया। वक़्त और हालात की मार ने स्वर्णिम युग के इस अभिनेता को इस तरह तोड़ दिया कि वह असमय 27 जनवरी 1992 को 71 वर्ष की आयु में इस संसार से विदा हुए। खैर ग़ालिब का एक शेर देखे जो दोनों के ज़िन्दगी का अक़्स है:—
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
दोनों मशहूर हस्तियों का बुढ़ापा आर्थिक तंगी, बदहाली में ग़ुज़रा। ग़ालिब जब मरे थे तो कोई सम्पत्ति उनके पास न थी। क़र्ज़ छोड़कर मरे थे। उनके कफ़न दफ़न का हिसाब-किताब भी अड़ोस-पड़ोस से चन्दा लेकर किया गया। भले ही आज तक ग़ालिब का कितना ही गुणगान महिमामण्डन किया जाता है। जब ज़रूरत थी तो कुछ न था। इसलिए जीते जी ग़ालिब कह गए थे:—
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
अपने अभिनय के रंगों से महाकवि कालिदास, संत कबीरदास, संगीतज्ञ तानसेन, और शा’इर मिर्जा गालिब जैसे चरित्रों को नया रूप देने वाले कुशल अभिनेता भारत भूषण का सितारा भी कभी इतनी गर्दिश में पड़ गया था कि उन्हें अपना गुजारा चलाने के वास्ते मजबूरन दोयम दर्जे की फ़िल्मों–नाटकों में छोटी-छोटी भूमिकाएं करने को मजबूर होना पड़ा था। भारत भूषण जी जब दुनिया से गए तो उनपर कुछ क़र्ज़ तो विशेष था नहीं मगर कोई ज़ियादा क़ीमती सम्पत्ति भी नहीं थी। दो बिटियाँ थीं। पत्नी काफी पहले ही गुज़र चुकी थी। शोहरत आख़िरी वक़्त आते-आते ख़त्म हो चुकी थी। कमोवेश यही हाल ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी जी और फ़िल्म के लेखक मण्टो (उर्दू के मशहूर अफ़्सानानिगार, जो बटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे। जहाँ दरिद्रता की हालत में 1955 ई. मात्र 42 वर्ष की आयु में निधन हुआ।) का भी रहा। आज भारत भूषण जी की पुण्य-तिथि पर यूँ ही कुछ लिखने का दिमाग़ में आ गया तो आप सब से शेयर कर रहा हूँ।
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(आलेख संदर्भ:— पुराने अख़बारों की कतरने; पुरानी फ़िल्मी पत्र-पत्रिकों की गॉसिप्स व विकिपीडिया से प्राप्त जानकारियों के आधार पर)