पचीस साल पुराने स्वेटर के बारे में / MUSAFIR BAITHA
अभी हाल फिल्हाल तक गाहे-ब-गाहे
बतौर इनर मैं जिस स्वेटर का इस्तेमाल कर लेता था
वह तकरीबन पचीस साल पुराना है
जबकि यह अपनी पैदाईश के वक्त
मेरा बैगी और स्कूल ड्रेस का
इकलौता नेवी ब्लू स्वेटर
हुआ करता था
पचीस साल का समयमान तो
एक मानव पीढ़ी के बराबर होता है
सो इस स्वेटर के साथ
किसिम-किसिम की यादें लगी हैं
अब तो इस गरम कपड़े के आधी उम्र से
बेसी का हो गया है मेरा स्कूली बेटा भी
जबकि कमोवेश उसी उम्र में
दसवीं कक्षा में पढ़ता था मैं तब
इस स्वेटर में लगी दो थिगलियां
इसके जन्मकाल में ही
सिर मुड़ाते ओले पड़ने की
जीवंत कथा कहती चलती हैं
सन 1983 के लम्बे शीतलहरी भरे दिन के
कई-कई घटनापूर्ण दिवस इसके जीवन में लगे हैं
एक दिन स्कूल में
संगी संहाती संग लटपट औ धमाचैकड़ी बीच
पूरे कपड़े मेरे धूलधूसरित और
कीच सने हो गए थे
शाम को ही मैले कुचैले इस स्वेटर को
साफ कर सूखने को रख छोड़ा था मां ने
पर हवा में ज्यादा नमी और धूप की कमी के कारण
अगले दिन अहले सुबह स्कूल जाने तक
पर्याप्त कच्चा रह गया था वह
मां ने सुखाने की गरज से
स्वेटर को चूल्हे की भरसक आग दिखाई थी सतर्क
पर उसकी लपलपाती सुर्ख जीभ
एक सूराख बना गई थी अच्छी खासी
उस जले स्वेटर को ही पहन
कोई सप्ताह भर मुझे जाना पड़ा था स्कूल
जब तक कि गांव के ही दहाउर कुशवाहा की
नई नवेली पतोहू ने
बेमेल रंग वाले उधर के पुराने ऊन से ही
टांक नहीं दिया उसको
गांव के ऊसर अक्षर स्त्री इतिहास में
यह पहली बहुरिया थी
जो मैट्रिक पास थी और
गांव में स्वेटर का पहला कांटा
शायद मेरे उस पुराने स्वेटर के ही
हिस्से आया था
इस कनिया का हमारे गांव में
आना न हुआ होता तो
कांटा-कुरूस भी न जाने कब
यहां की अपढ़ कमपढ़ बेटी-चाटी देखती
वैसे यह काम भी
काफी मनुहार मनौवल के बाद
उस सद्यःप्रणीता के कॉलेजिए दूल्हे की
सहमति मिलने के बाद ही हो पाया था
कि एक बात भी उससे पूछे बिना
करने से डरती थी यह टटका दुलहन
पर यह काम इसलिए भी कुछ सुभीते से
सध् गया था कि वह गिरहस्त था हमारा
मेरी असमय विधवा हुई मां
उस गांव के कई अन्य घरों की तरह
उस घर के भी कपड़े धोने का
पुश्तैनी धन्धा किया करती थी
स्वेटर में बाद में
किसी घरैया चूहे की
अमीर गरीब सबको समान स्वाद चखाते
दांतों की कवायद की
भेंट भी चढ़ना पड़ा
और दूसरी पैबंद लग गई
यह समय था सन उन्नीस सौ पचासी का
जब इंजीनियरी की तकनीकी तालिम हासिल करने
तेलशोधक नगरी बरौनी पहुंच गया था मैं
यह दूसरी चिप्पी बुनाई शिल्प की
अचरजकारी हुनर रखने वाले
पुरुष सहपाठी सीताराम पासवान द्वारा
पॉलिटेकनिक छात्रावास में ही लगाई गई
स्वेटर की एक कहानी
फ्लैशबैक में भी कह दूं
धन धान्य संकुल एक गांव में
स्कूल मास्टर हुआ करते थे
मेरे बड़े भइया
उनके स्कूल की चार चैदहवीं लगी
चारू बालाओं ने इस स्वेटर के
खंडों संभागों को
पृथक पृथक काढ़कर एक बनाया था
और स्वेटर को अंतिम रूप देने से पहले
इसकी फिटनेस की परख के ख्याल से
मुझे घर से वहीं स्कूल बुलवा लिया था भैया ने
उन कन्याओं की सलाह पर
मुझे स्वेटर शिल्पकारों के हवाले किया गया
चार हमउम्र लड़कियों से घिरा मैं
सामने उन सबके उलटे सीधे निर्देशों के बीच
स्वेटर पहन आजमा रहा था
और शर्म के अटके कणों वाला
अपना चेहरा लिए
झेंप भरी निगाहों से कुड़ियों की तरह
उन शोख बालाओं को असहाय-सा देख रहा था
आगे पीछे दायें बाये मुझे हिला डुला और
स्वेटर को इधर उधर खींच तान
कुछ ट्रायल की आवश्यकता वश
और अधिक यौवनप्रसूत शरारत चुहल बतौर
वे बनुकर हाथ कई कोणों से
निरख परख रहे थे
और मन में मनों उथल पुथल हिलोर लिए
बुत बन वहां खड़ा था मैं
अजब इम्तिहान
इस बीच एक ने ऐसे झकझोरा मुझे
कि लड़खड़ाकर दूसरी की बाहों में आ गया
गिर भी गया होता बेशक जमीं पर
अगर मुझे थाम न लिया गया होता
स्वेटर के सामने वाले हिस्से की
नयनाभिराम डिजाइन को बड़े मनोयोग से
तैयार करने में
उस समय तक सीखी गुनी
अपनी सारी कारीगरी उलीच देनेवाली
तबकी उसी अल्हड़ अनगढ़ शिल्पी ने
अभी-अभी इस अकुंठ स्मृति संचित
स्वेटर में तीसरी पैबंद भी जड़ दी है
इसी हुनरमंद शिल्पी ने
मेरे घर को भी गढ़ा संवारा है घरनी बन
मेरी संतानों की जननी वह.
नींद के बाहर
वह अब भी
मेरे सपनों में फिर फिर आती है
और प्रथम प्यार के बीते दिनों की
मीठी याद के ताजा झोंकों से
सपनों में ही भिंगोकर कुरेद कर नींद
मन भर सोने भी नहीं देती
जबकि उसे देखे भी अब
महीनों साल तक हो आते हैं
फिर भी वह रच बस गई लगती है
मेरे अन्तरतम में ऐसे
कि सपने में भी स्थगित नहीं होती
वो
उसकी बातें
कबकी थमकी बीती अभिसारी मुलाकातें
यद्यपि कि दसेक साल गुजर गए हैं
परबंधन में बंधे हुए भी मुझको
दो बच्चों के सर्जन सुख प्यार ने भी
कम नहीं बांध लिया है मुझको
उगते उमगते युवा दिनों का
अवकाश भी नहीं अब
वयःसंधि बेला की वह
अल्हड़ बेफिक्री भी अब कहां नसीब
जिम्मेदारियों के बहुविध संजाल से
नथ बिंध गया हूं इस कदर कि
मन के सपने भी कभी ही देखता हूँ
बाबजूद विविध्रवर्णी दुश्चिन्ताओं के
इन क्षुद्र स्वप्न लम्हों में भी
उसकी ढीठ हिस्सेदारी का सबब
मैं बूझ नहीं पाता
अभी अभी ही
अबकी उचटी नींद में वह
आयी थी मेरे पास लेकर कुछ सौगात
जबकि मैं पत्नी बच्चों के बीच
किसी आत्मीय वार्तालाप में था मगन खूब
कि सबको कुछ-कुछ बांट गई वह पहले
फिर किंचित इत्मीनान से अंत को आई मेरे पास
बचाकर मेरी खातिर
बहुत ही बेसी सौगात
किया था आंखों ही आंखों उसने
मुझसे स्वीकार का बेकस इसरार
और फौरन मेरे दोनों बाजू
खुद ही बेसाख्ता बढ़ चले थे आगे
उसके दिए को अंटाने के लिए
जबकि खूब साफ देख लिया था सबने
मेरे हक में उसका धृष्ट भेदक आचार
और ऐन मौके पर
नींद उचट गई थी मेरी
सोचता हूं अब
कि वह और का होकर भी
क्या दे सकेगी और ले सकूंगा मैं
यही बेसी सौगात
नींद के बाहर भी.