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18 Feb 2023 · 4 min read

#पंडित जी

🙏संस्मरण

★ #पंडित जी ★

हम चारों भाईयों सहित दस-बारह लड़कों की टोली हुआ करती थी। टोली में सबसे बड़े हमारे बड़े भापाजी अर्थात भ्राताश्री सत्यपाल जी व दूसरे स्थान पर छोटे भापाजी श्री यशपाल जी। बड़े भापा जी मुझसे आठ वर्ष और छोटे भापा जी छह वर्ष बड़े थे। माताजी ने बताया था कि उनसे दो वर्ष छोटा हमारा एक और भाई था, ओमप्रकाश। वो अभी एक वर्ष का भी नहीं हुआ था कि भगवान जी ने किसी कारणवश उसे वापस बुला लिया। और जब भगवान जी ने उन्हें लौटाया तो फिर से उनका नाम ओमप्रकाश ही रखा गया। वही हमारे प्रिय वीरजी अर्थात ओम भैया जी हैं जो कि अमेरिकावासी हो चुके।

हमारी टोली के सभी सदस्य रेलवे कर्मचारियों के बच्चे हुआ करते थे। जैसे कि हमारे पिताजी रेलवे पुलिस बुढलाडा के चौकीप्रमुख थे। यह ईस्वी सन् उन्नीस सौ सत्तावन की बात है जब देश में दशमलव प्रणाली को अपनाया गया था।

टोली के एक सदस्य ने जानकारी दी कि “मोर लंबी उड़ान नहीं भर सकता। यहां से वहां तक एक उड़ान और फिर बैठ जाएगा। इस प्रकार जब सात उड़ान भर लेगा तब वो इतना थक जाएगा कि फिर उड़ नहीं पाएगा।”

मैंने पूछा, “यहां से वहां तक अर्थात कहां से कहां तक?”

“तुम पूरी शक्ति लगाकर अपने जूते को जहां तक फेंक सको वहां तक।”

उसके उत्तर से नया प्रश्न जन्मा,”और यदि छोटे भापा जी जूता फेंकें तब?”

“तब मोर को कुछ समय और उड़ना होगा।” अब उसकी जानकारी को मान्यता मिली।

उस दिन मोर पकड़ो अभियान पर हमारी टोली निकली तो टोली का एक भी सदस्य अनुपस्थित नहीं था। रेलपटरी के किनारे-किनारे हम लोग दूर तक निकल आए तो मोर दिख गया।

टोली का प्रत्येक सदस्य मोर्चे पर डट गया। मोर को दौड़ाना अर्थात उड़ाना आरंभ किया गया। सातवीं तो नहीं परंतु, नवीं-दसवीं उड़ान के बाद उसने हार स्वीकार की। छोटे भापाजी एक छलांग में पेड़ के ऊपर और दूसरी छलांग में मोर उनके हाथ में था।

सफल अभियान से लौटती विजयोल्लास में डूबी टोली का प्रत्येक सदस्य अपना-अपना मनभावन गीत ऊंचे स्वर में गा रहा था। मोर को छोटे भापाजी ने अपनी बगल में दबा रखा था। रेलपटरी के किनारे-किनारे चलते जब रेलवे स्टेशन दिखने लगा तभी सामने से आ रहा एक व्यक्ति हमें देखकर रुक गया। पास आने पर उसने बड़े भापाजी से पूछा, “तुम पंडित जी के बेटे हो न?”

भापाजी के हाँ कहने पर उसने चेताया कि “मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। इसे पकड़ना अपराध है। और बेटा, अपने पिताजी को तो तुम जानते ही हो। तुम सबको हवालात में डाल देंगे वे।”

बड़े भापाजी ने छोटे भापाजी की ओर देखा। उन्होंने मोर को छोड़ दिया। दोनों भाई आपस में आँखों से बात किया करते थे।

एक लड़का बोला, “छोटे भापे, हवालात से डर गए?”

“हवालात से क्या डरना? वो तो हमारे घर के सामने ही है। लेकिन, जब बीच-बीच में पिताजी सिपाहियों से हवालातियों की पिटाई करवाया करते हैं न, वैसे उसकी भी चिंता नहीं है। लेकिन, जब मेरी चीखें घर तक पहुंचतीं तो उषा बहुत रोती। उसका रोना मैं नहीं सुन सकता।”

उषा से बहुत स्नेह करते थे छोटे भापाजी। उसका कन्यादान भी उन्होंने ही किया था। तभी भगवान जी ने उनकी झोली संतानसुख से भर दी थी।

ओम वीरजी ने बड़े भापाजी से पूछा, “यह कौन थे, जिन्होंने हमारा मोर छुड़वा दिया?”

बड़े भापाजी ने पीछे मुड़कर तर्जनी अंगुली से इंगित किया, “वो सामने जो गाँव दिख रहा है न, यह वहां के सरपंच हैं। इन्हीं के यहां से दूध लाकर दुकानदारों को देने की योजना थी।”

छोटे रेलवे स्टेशनों के समीपस्थ गांवों के वासी उन दिनों रेलवे कर्मचारियों अधिकारियों व रेलवे पुलिस से भाईचारा बनाकर रखते थे। हमसे मोर छुड़वाने वाले सरपंच जी भी बहुधा पिताजी के पास आया करते थे।

बुढलाडा में रेलवे पुलिस चौकी रेलवे परिसर से बाहर एक चौबारे पर थी। सीढ़ियां चढ़ते ही बाईं ओर चौकी का कार्यालय, उसके साथ हवालात और उससे आगे बड़ा-सा आगार, जिसमें वे सिपाही रहते थे जिनके परिवार साथ में नहीं थे। वहां से दाएं घूमकर एक सिपाही का आवास था। और सीढ़ियों से दाईं ओर घूमकर सामने हमारा घर था। नीचे धर्मशाला और बाहर दुकानें थीं।

हमसे मोर छुड़वाने वाले सरपंच जी यदाकदा पिताजी के पास आया करते थे। एक दिन वे बोले, “आपके बेटे स्कूल जाने से पहले यदि हमारे यहां से दूध लाकर नीचे दुकानदारों को दे दिया करें तो बच्चे व्यस्त भी रहेंगे और पैसे का मोल भी जान जाएंगे।”

उनके बार-बार कहने पर पिताजी मान गए। तब बड़े भापाजी जिस दिन ड्रम लेने लुधियाना गए उसी दिन पिताजी ने सरपंच जी के किसी अपने को किसी अपराध में पकड़ लिया।

अब सरपंच जी के बहुतेरे चक्कर लगने लगे। वे अपने साथ कभी किसी नेता को और कभी किसी धनिक को लाते। लेकिन, पिताजी अपने नियम-कानून पर अटल रहे। सरपंच जी जब भी आते हमारे घर की ओर देखते। सामने ही चमकते हुए ड्रम पड़े थे।

एक दिन सरपंच जी कहने लगे, “पंडित जी, यह स्पष्ट है कि हमारे व्यक्ति ने अपराध किया है। आप अपने कानून पर टिके रहिए हमें आपसे कोई शिकायत नहीं। परंतु, बच्चों का क्या दोष है? वो ड्रम ले आए हैं। उन्हें तो काम करने दीजिए। मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि आपको कभी अपने कर्त्तव्य से हटने को न कहूंगा।”

“मैं जब आपकी सहायता करने में असमर्थ हूं तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि आपसे किसी भी तरह का कोई लाभ लूं।” पिताजी ने हाथ जोड़ दिए।

“पंडित जी, प्रणाम !” सरपंच जी उस दिन लौट गए। उसके बाद वे हमें उस दिन मिले थे जब हमारी टोली मोर पकड़ो अभियान से लौट रही थी।

मैंने एक दिन माताजी से पूछा, “हम ब्राह्मण नहीं हैं, तब भी लोग पिताजी को पंडित जी कहकर क्यों बुलाया करते हैं?”

“बेटा, पुलिस की नौकरी। न बीड़ी-सिगरेट, न मांस-मदिरा। किसी से एक पैसा रिश्वत नहीं। लोग यही समझते हैं कि यह अवश्य ब्राह्मण ही होंगे। तभी लोग इन्हें पंडित जी पुकारा करते हैं।”

#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२

Language: Hindi
104 Views
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