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12 Jun 2016 · 1 min read

न मुझको घाट का रक्खा न घर का

ग़ज़ल-

न मुझको घाट का रक्खा न घर का
अजब अंदाज है उसकी नजर का

जला कर रख दिया है आशियाना
करूँ क्या मैं भला ऐसे शजर का

कभी देखा नहीं उसने पलट कर
मुसाफ़िर मैं रहा जिसकी डगर का

न वो ग़म में हुआ शामिल हमारे
न पूछो हाल उस पत्थर जिगर का

तुम्हें भी चाह है अच्छे दिनो की
हूँ मैं भी मुन्तज़िर अच्छी सहर का

सियासी थे सभी ज़ुमले तुम्हारे
कहाँ सीना गया वो हाथ भर का

उजड़ कर रह गया है आज गुलशन
बना है ख़ार सूनी रहगुज़र का

राकेश दुबे “गुलशन”
09/06/2016
बरेली

531 Views
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