न दिया धोखा न किया कपट,
न दिया धोखा न किया कपट,
न था विचार करूं छीन झपट।
कभी दीनता थी कभी हीनता थी,
पर कभी नहीं गमगीनता थी।
कभी मला गया कभी छला गया,
बस वक़्त मुताविक ढला गया।
ईमान छोड़ता मैं कैसे,
प्रभ जैसे चाहा था वैसे।
आभारी हूँ मनुहारी हूँ,
परमारथ का व्यवहारी हूँ।
अब पारस पत्थर है घर में,
हरि से पाया सब कुछ वर में।
बेईमानी में भले चकाचौंध,
इसका फल देता है सदा रौंद।
छल कपट से जो भी कमाता है,
वही वक्त पर खूब पछताता है।
यह जग है कर्मभूमि सुन लो,
जैसा चाहो वैसा चुन लो।
हरि पाना तो ईमान गहो,
वरना फिर चहे बेईमान रहो।
कभी सोचा संग न जाये कफ़न,
कोई चिता जले कोई होय दफन।
इतना कहना दिन चार के हैं,
वही सफल गए जो प्यार के हैं।